बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

सरकार माफ करो...




सरकार माफ करो.

कल मुझे लखनऊ के ट्रैफिक पर जितना गुस्सा आया शायद इतना गुस्सा कभी नहीं आया होगा। लखनऊ में अशोक मार्ग पर हिन्दुस्तान अखबार के दफ्तर से इंदिरा भवन की दूरी शायद एक किलोमीटर भी नहीं होगी। यानि अगर कोई स्वस्थ इंसान पैदल चले तो 10 मिनट से भी कम वक्त में इस दूरी को पार कर लेगा। लेकिन कल मुझे ये रास्ता तय करने में पूरे 39 मिनट लगे वो भी गाड़ी से, या यू कह लीजिए इसीलिए लगे क्योंकि मैं गाड़ी से था। इंच इंच बढते ट्रैफिक में अगल बगल चल रही गाड़ियां, बसें, मोटरसाईकिलें, ऑटो सब धुंए का गुबार उड़ा रहे थे। कल समझ में आया धरती पर बढ़ रहे प्रदूषण में हमारा कितना योगदान है। तिल तिल बढ़ती गाड़ियां अपने हार्न की ताकत का एहसास दिला रही थीं। सोचिए चारों ओर से बंद शीशों में मेरे कान भन्ना रहे थे तो उनका क्या हाल हो रहा होगा जो बाहर सीधे इन आवाजों को अपने कानो में झेल रहे थे। बाइक पर सवार एक नौजवान अपने फोन को पिक करने के बाद अपने हेल्मेट में फंसाते हुए झुंझलाकर बात कर रहा था। ऑटो में तीन की सीट पर फंसे हुए चार लोग बैठे थे, किनारे वाले भाई साहब अपना बैग धुटनों पर टिकाए बार बार घड़ी पर नजर डाल रहे थे। शायद उनकी ट्रेन का वक्त हो गया था और वो लेट हो रहे थे। इन सब हौच पौच से बेखबर रिक्शे पर सवार नीली स्कूल ड्रेस में करीब पांच साल के तीन बच्चे चिड़िया उड़ कौआ उड़ खेल रहे थे। इन बच्चों को देखकर एकबार तो मैं भी ये सब भूलकर अपने बचपन में लौट गया। तभी गुर्राती हुई काली टाटा सफारी मेरे बगल से निकलने का प्रयास कर रही थी। सफारी भी अपनी सीटों से ज्यादा लोगों को ढो रही थी और रह रहकर रायफल खिड़की से बाहर झांक रही थी। बोनट पर रूलिंग पार्टी का झण्डा अलग तो मैने उनको पास देने में भलाई समझी। भला हो इन रेडियो चैनल्स का जो चुनिंदा गाने सुना कर गुस्से की दिशा बदल रहे थे। सिरपर पसीने की बूंदे लिए किसी तरह से उस स्थान तक पहुंचा जो इस जाम का कारण था। यहां पहुंचने के बाद गुस्सा आ रहा था सरकारी तंत्र पर, और दुख हो रहा था जाम के कारण इन लोगों पर। ये लोग कोई और नहीं हमारे और आपके घर में मौजूद महिलाओं की तरह ही दिख रहीं थीं। चूड़ियों से भरे हाथों में धरने की तख्ती थी, घूंघट को दांतों में दबाए अपनी मांगों के नारे लगा रही थीं। हजारों की संख्या में ये आंगनवाणी की महिलाएं थी जो सरकार के खिलाफ धरने पर बैठी थीं। धरने का मुद्दा बयां करने का कोई मतलब तो है नहीं वो तो सबने पेपर्स के जरिए जान ही लिया होगा। लेकिन बड़ा दुख होता है ये सब देख कर। क्यों सरकार इन सब मुद्दों के जरिए अपनी नाकामी का परिचय देती है और इस नाकामी पर ऐसे धरने मुहर लगाते हैं। चलो धरना हुआ तो हुआ। इन धरनों के बाद यातायात की अव्यवस्था पर भी किसी का ध्यान नहीं जाता। 39 मिनट की कशमकश से मैने तो सिर्फ झुंझलाते हुए एक मिनट का रास्ता पार कर लिया। लेकिन सोचिए कितनों की ट्रेन मिस हुई होगी। कितने ऑफिस देरी से पहुंचे होंगे और बॉस की झाड़ सुनी होगी। कितने बच्चों का स्कूल में दंडित होना पड़ा होगा। खैर.... सही है अखिलेश भईया की सरकार में जाने अभी कौन- कौन से दिन देखने बाकी हैं।        

दीपक यादव 

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