गुरुवार, 26 मई 2016

बंद दरवाजा खुला दिमाग


बंद दरवाजा खुला दिमाग


कभी-कभी आपके साथ कुछ ऐसा हो जाता है जो आपको मूर्ख शिरोमणी साबित करने के लिए काफी होता है। ये अपने आप नहीं होता आप खुद ऐसी महान मूर्खता का सृजन कर डालते हैं। कल यानि 24/05/2016 को ऐसा ही एक वाकया मेरे साथ हुआ। सुबह देर से सोकर उठा था। करीब 9:30 बज गए थे। उठते ही सुबह का सबसे जरूरी काम निपटाया, मुंह पर पानी की छींटे मार कर नाश्ते के इंतजाम में लग गया। तकरीबन दस बजे होंगे। रोजाना की तरह कचरे वाले ने दरवाजे पर दस्तक दी। अमूमन मैं रात को ही सारा कचरा सोसायटी में रखे कूड़ेदान में डाल देता हूं ताकि सुबह कचरे के दर्शन न हों। पिछली रात कचरा फेंकना भूल गया था। सो दस्तक पर विशेष ध्यान दिया और किचन का सारा कचरा समेट घर से बाहर निकला। दरवाजे से कोई तीन कदम पर एक बड़ा कूड़ेदान रखा था। यूं तो कचरा अगर दरवाजे पर भी रख दें तो कचरे वाला स्वयं उठा ले जाता है, लेकिन रखे कूड़ेदान को देखकर लगा उसी में डाल देता हूं। डिब्बे में कूड़ा डालना मेरी लिए आफत बन गया। दरवाजे से कूड़ेदान तक तीन कदमों का सफर मेरे लिए अंग्रेजी वाला सफर बन गया। मेरे बाहर निकले ही हवा का एक झोंका दरवाजे पर पड़ा और दरवाजा बंद। बंद मतलब बिल्कुल बंद। क्योंकि मेरे अलावा घर में कोई नहीं था और दरवाजे में एक तरफा स्प्रिंग लॉक लगा था, जो या तो अंदर से खुलता है या फिर चाबी से। अब अंदर कोई था नहीं और रही चाबी की बात तो वो भी कलमुई अंदर ही दरवाजे के हैंडल में लटक कर खनखना रही थी। 
जैसा की मैने पहले बताया कि कुछ देर पहले ही मैं सोकर उठा था। अब सोकर उठने पर इंसान की हालत कैसी होती है, ये आप बेहतर समझ सकते हैं। कुछ शरीफ लोग तो कपड़े पहन कर सोते हैं और हम सिर्फ एक अदद जांघिया यानि कच्छा पहने थे जिसे कुछ पढ़ा लिखा वर्ग आजकल बॉक्सर भी कहता है। अब मेरी जो हालत थी वाकई दयनीय सी थी। उघारे बदन, पैरों में चप्पल नहीं, बिखरे बाल, मैली आंखें, हफ्तेभर से शेव नहीं की थी सो अलग। पर्स, मोबाइल सब घर के अंदर कैद हो चुके थे। कुछ देर तक तो समझ ही नहीं आ रहा था कि वाकई ये अजब घटना घट चुकी है। कचरे वाले को ज्यादा वक्त नहीं लगा पूरा माजरा समझने में, कम्बखत मेरी बेबसी पर मुस्कुराते हुए निकल गया। खैर अब कुछ तो करना था। कहते हैं परेशानी में पड़ोसी काम आते हैं, लेकिन यहां मुंबई में पड़ोसी जैसा कुछ होता नहीं है। यहां लोग सालों तक ये नहीं जान पाते कि उनके पड़ोस में कौन रहता है। वो अलग बात है कि पड़ोसी कोई फिल्मस्टार हो। मैं खुद नहीं जानता था कि मेरे पड़ोस में कौन रहता है क्योंकि ज्यादातर वक्त घरों के दरवाजे बंद ही रहते हैं। अब मेरी हालत ऐसी थी कि किसी का दरवाजा खटखटाने में घबराहट हो रही थी, कहीं कोई महिला ने दरवाजा खोला तो क्या सोचेगी? खैर.. हिम्मत की और एक दरवाजे पर दस्तक दी, दरवाजा खुला, सामने एक साहब खड़े थे। कद में मुझसे कुछ 4 इंच ज्यादा थे। इकहरा बदन, खिचड़ी नुमा बाल, सफेद आधी बांह की पेट पर जेब वाली बनियान, मटमैले रंग का लोवर पहने, आंखों पर नजर का चश्मा ठीक करते हुए बोले.. "कहिए ?".. मैं बेवजह की मुस्कान देकर बोला.. "सर मैं फ्लैट नंबर 605 में रहता हूं मेरा दरवाजा लॉक हो गया है, (कच्छे को दिखाते हुए) इसके अलावा बाकि सब अंदर बंद है, अगर कोई शर्ट या टीशर्ट मिल जाती तो... दूसरी चाबी का इंतजाम कर लेता"
जोर से आती हंसी को उन भाई साहब ने होंठों की बाउंड्री पर रोका और मुस्कान में तब्दील किया और बोले.. "दो मिनट रुकिए" मैं   दरवाजे पर किसी मंगते () की भांति इधर उधर निहारने लगा कि कहीं कोई देख तो नहीं रहा। कोई दो मिनट में ही मेरे सामने ग्रे रंग की एक पुरानी टीशर्ट लिए वो भाई साहब खड़े थे। बिना वक्त गंवाए टीशर्ट पहनी। जल्द वापस करने के वादे के साथ शुक्रिया अदा किया और दरवाजा खुलवाने की जुगाड़ में निकल पड़ा।
टीशर्ट का साइज मेरे शरीर के मुकाबले थोड़ा बड़ा था, शक्ल अभी भी वैसी ही थी और पैरों में चप्पल नहीं। खैर.. आधा किलोमीटर पर पाण्डेय जी का कार्यालय ओम प्रॉपर्टीज था। पाण्डेय जी के जरिए ही ये घर किराए पर मिला था। उम्मीद थी उनके पास एक जोड़ा चाबी होगी। ये सब सोचते हुए बढ़ा जा रहा था। बस राहत की बात यही थी कि अंजान शहर में कोई जानता नहीं था इसलिए लोगों की नजरें मुझ पर होती हुई निकल जा रही थीं। 
कुछ दस मिनट बाद पाण्डेय जी की दुकान कम ऑफिस पहुंचा। दुकान पर पाण्डेय जी तो नहीं नजर आए लेकिन मकान की उम्मीद लिए ग्राहकों की एक टोली बैठी थी। मैने पाण्डेय जी के बारे में पूछा तो जवाब मिला, आ रहे हैं। करीब 10 मिनट इंतजार के बाद पाण्डेय जी आए। हाल खबर के बाद पांण्डेय जी दीवार पर टंगे चाभियों के जखीरे को खंगालने लगे, लेकिन मिला कुछ नहीं। मैने कहा "मकान मालिक को फोन करिए और पता करिए कि उनके पास है कि नहीं" मकान मालिक को फोन लगाया गया, जवाब राहत देने वाला था। चाबी तो थी लेकिन मकान मालिक साहब किसी काम से निकले हुए थे। बोले डेढ़ बजे तक आ सकेंगे। अभी वक्त हो रहा था साढ़े दस, यानि तीन घंटे इंतजार करना था। एक पंथ दो काज करते हुए पाण्डेय जी के विजिटिंग कार्ड पर मकान मालिक का नंबर लिखा और निक्कर की जेब में रखा। बिताने को तीन घंटा पाण्डेय जी की दुकान पर बिताए जा सकते थे लेकिन बार-बार ग्राहकों का आना, तो मुझे लगा कहीं और चलना ही ठीक होगा। 
घर के पास ही मेन रोड से लगा हुआ एक पार्क है। पार्क की बाउंड्री और फुटपाथ इस कदर जुड़े हैं कि आराम से बैठा जा सकता है। चार सौ मीटर लंबी इस बाउंड्री पर थोड़ी-थोड़ी दूर तकरीबन हर किस्म का लोग बैठे थे। मैं भी साफ सुथरी जगह खोज कर बैठ गया। इधर उधर नजर दौड़ाई तो देखा बड़ा ही रोचक नजारा था। बड़े दरख्तों की छांव में  लाइन से बाउंड्री पर बैठे सिर झुकाए लोग।  कितने शरीफ लोग हैं ये। सब के सब लाइन से गर्दन झुकाए बैठे किसकी गुलामी कर रहे हैं? ये गुलाम थे एक नन्हीं सी चीज के जिसे आप मोबाइल के नाम से जानते हैं। सबके हाथ में कोई चैट कर रहा था, तो कोई गेम खेलने में मग्न था। कोई फोटो निहार रहा था। लेकिन सब के सब शांत सिर झुकाए अपने में मग्न थे।  अगर मेरे घर की चाबी का मसला न होता तो शायद मैं भी इस भीड़ का हिस्सा होता। कभी दरख्तों को, आती- जाती गाड़ियों के मॉडल को, इंसानी मॉडल को देखते हुए करीब एक घंटे तक वहां बैठा रहा। राह चलते एक शख्स से वक्त पूछा, 12 बज चुके थे यानि अभी एक से डेढ़ घंटा और बिताना था अगर मकान मालिक सही समय पर आता है तो। पार्क की बाउंड्री से उठने के बाद करीब 400 मीटर तक  धीरे-धीरे कदमों तक इधर-उधर टहलने लगा। धीरे चलना मेरी मजबूरी भी थी क्योंकि चप्पल थी नहीं और नंगे पैरों आवारागर्दी की आदत छूटे जमाना हो गया था। फलों की दुकान, कचरे की गाड़ी, कोचिंग जाती और मसखरी करती बच्चियां, फुटपाथ पर तीन बांस और एक दीवार के सहारे शेड में दोसे की दुकान, और दुकान में सफेद आटे को चमचे से दोसे में बदलता आदमी, कभी पेड़ों की डाल तो कभी खिड़कियों पर उड़ान भरते कौवे, मक्की के दानों को गुटर गुटर निगलते कबूतर, कबूतरों के इर्द गिर्द घूमता कुत्ते का छोटा बच्चा क्या कुछ नहीं था बस कभी इत्मिनान से नजर रुकी नहीं। हमेशा जल्दी में रहते थे लेकिन आज इंतजार था। इस उधेड़ बुन में हाथ निक्कर की जेब में गया तो हाथ में वही कार्ड था जिस पर मैं मकान मालिक का नंबर लिख कर लाया था। लेकिन फोन कहां से करता, अब पीसीओ भी तो रेगिस्तान में दरख्त  की तरह हैं। सबके पास फोन जो हैं तो इनको पूछता भी कौन है। बड़ी मशक्कत के बाद एक मेडिकल कम जनरल स्टोर पर दो फोन रखे दिख गए। पूछा तो पीसीओ ही था। लेकिन फोन कैसे मिलाता पैसे तो थे नहीं। दुकानदार को अपनी दास्तां सुनाई, अगले एक घंटे में पैसे चुकाने के वादे पर फोन मिलाने की अनुमति मिल गई। मकान मालिक को फोन लगाया भाई साहब, रास्ते में थे यानि करीब आधा घंटा और लगना था, मैने वहीं रुकना बेहतर समझा एक फोन और जो करना था। दुकान के काउंटर पर रखे अखबार की इजाजत मांगी और दुकान के बगल में बने चबूतरे पर बैठ गया। अखबारों की सुर्खियों, नेताओं के बयानों, लूट, रेप, इकोनॉमी में गोता लगाते कब आधा घंटा निकल गया पता ही नहीं लगा। एक बार फिर फोन करने की गुजारिश की। मकान मालिक घर पहुंच चुके थे। अगले 10 मिनट में उन्होंने मेरी बिल्डिंग के गेट पर मिलने को कहा। दुकानदार को जल्द लौटने का वादा और धन्यवाद करते हुए अपनी बिल्डिंग की ओर बढ़ा। समय अनुसार मकान मालिक आ गए, दरवाजा खुला और हमने राहत की सांस ली। मकान मालिक चलते बने। हम भी फटाफट तैयार होकर दुकानदार के पैसे चुकाते हुए ऑफिस की ओर निकल पड़े।  

सोमवार, 23 मई 2016

जब संकट ने दी दस्तक..



जब संकट ने दी दस्तक


मेरी नई- नई शादी हुई थी। अभी मुश्किल से 15 दिन ही बीते होंगे। पत्नी को पहली बार मायके ले जा रहा था। घर जाने की खुशी में सुबह से सामान बांधने में लगी थी। बड़ी मशक्कत के बाद ट्रेन का टिकट पक्का हुआ था। खुश तो मैं भी था दिल्ली जो जाना था। दिल्ली में ससुराल तो थी साथ बचपन के कुछ पुराने दोस्त भी थे। पत्नी को घर छोड़ कर दोस्तों के साथ ही रुकने का प्लान था। सबको फोन करके सूचित कर दिया था। दोस्तों ने भी मस्ती करने का पूरा इंतजाम बना लिया था। दिल्ली में चार दिन रुकने की योजना थी तो सारे काम दिनभर दौड़-भाग के निपटा दिए थे।

शाम हुई ट्रेन का वक्त नजदीक आ रहा था। रात की आखिरी गाड़ी थी। करीब 8 बजे होंगे सोचा पापा- मम्मी के पास कुछ देर बैठ लिया जाए पूरा दिन तो भागम-भाग में ही निकल गया। मार्च का महीना था गर्मी अपनी मौजूदगी का एहसास कराने लगी थी। पत्नी से सारी तैयारी को पक्का कर पापा के कमरे में दाखिल हुआ। पापा उघार बदन हरी लुंगी पहने लेटे थे। बगल में कुर्सी पर बैठी मम्मी रिमोट लिए बेमन टीवी की ओर निहार रही थी। मै पापा के ही बिस्तर पर बैठ गया। मेरी आहट होते ही पापा लंबी सांस भरते हुए उठ कर बैठ गए। कै बजे की है ट्रेनपापा ने कहा। बारह पचास की है लेकिन सोच रहेन जल्दी ही निकल जाई मैने कहा।  “हां ठीकै है ज्यादा रात ना करो नही तो टैम्पो मिलै मा दिक्कत होईपापा बोले। मैने बिना कुछ कहे सिर हिलाके हुंकारी भर दी। इसी बीच मम्मी बोलीं जाओ भईया अब देर न करो, खाना खाओ दून्हौं लोग निकरै की तैयारी करो। मैं उठा तो पापा ने दबी सी आवाज में कहा रुको कुछ पईसा लेत जाओ। मैने मना किया लेकिन फिर भी उन्होने हाथ में कुछ दस हजार रुपए रख दिए। मैं ऊपर अपने कमरे में चला आया जो कि मम्मी- पापा के कमरे के ठीक ऊपर था। शादी के बाद पहली बार घर जा रही रीना की खुशी का ठिकाना नहीं था।

जब पापा के सीने में दर्द उठा
हमने खाना खाया। हम टिकट वगैरह चेक कर ही रहे थे कि मम्मी ने आवाज लगाई।  मैने कहा थोड़ी देर रुको मैं सामान लेकर नीचे ही आ रहा हूं मम्मी बोली भईया सामान छोड़ो जल्दी आओ नीचे मेरी समझ में नहीं आया आखिर बात क्या हो गई। अभी तक तो सब ठीक था। मैं बिना वक्त गंवाए जीने पर लपका। नीचे देखा पापा अपने बिस्तर पर नीचे पैर लटकाए बैठे थे। चेहरा लाल बार- बार लंबी सांस लेते और आंखें जोर से भींच रहे थे। मैने पूछा क्या हुआ..? आपका चेहरा क्यों इतना लाल है पापा तो कुछ नहीं बोल सके लेकिन मम्मी ने कहा भईया इनकेर सीना पिरा रहा बड़ी जोर से। अबय जब तुम आए रहव, तो खुदौ कुछ नई कहिन न हमका कहै दिहिन मैने पूछा कब से दिक्कत हैमम्मी बोली भईया दिक्कत तो तुमरी शादी से पहिले से है। थोड़ा मोड़ा पिरात रहै तो पता नाई कउन गोली लाए हैं मेडकल स्टोर से। वहय गोली खाय लेत रहंय, तउन आराम मिल जात रहय। हम केत्तिउ बार कहेन तुमका बताय देई लेकिन हमका डांट देत रहए। आज दरद ज्यादा है बिल्कुल रहाईस नाई होई रही मेरे गुस्से की कोई सीमा नहीं थी उस वक्त, लेकिन मैं बस इतना कह के रह गया कि बताए म कउन हर्ज है, बताना तो चाहिए न मन ही मन मुझे अंदेशा हो गया था हो न हो ये हार्ट अटैक है। रीना... ओ रीना.... मैने आवाज लगाई। रीना भी झट से आ गई। मैने रीना से कहा जल्दी से बिट्टू को बुलाओ मैने और मम्मी ने पापा को शर्ट और पायजामा पहनाया। तब तक बिट्टू भी आ चुका था। इस वक्त कार की सख्त जरूरत महसूस हो रही थी लेकिन हैसियत ने बांध रखा था। घर में दो पहिए के तो कई वाहन थे लेकिन चार पहिए का एक भी नहीं।

दर्द नहीं, दिल का दौरा
खैर.. बिना वक्त गवांए मैने अपनी बाईक पर पापा को बिठाया पीछे छोटा भाई (बिट्टू) बैठा और जैसे तैसे हम लोग पास के अस्पताल विवेकानंद पॉलीक्लीनिक पहुंचे। इमरजेंसी में पहले से दो मरीज थे। मौजूद डाक्टर को परेशानी बताई डाक्टर ने जांच शुरू की और कुछ दवाईयां लाने को कहा। मैने भाई को वहीं पापा के साथ छोड़ा और दवाईयां लेने दौड़ा। इमरजेंसी से फार्मेसी की दूरी करीब सौ मीटर होगी। फटाफट दवाईयां लेकर वापस मैं इमरजेंसी में था। मेरी लाई दवाओं में से डॉक्टर ने एक गोली निकाली और पापा को जुबान के नीचे रखने को बोला। मैने डॉक्टर से कांपती जुबान से पूछा सर कुछ बताएंगे क्या परेशानी है ?” डॉक्टर बोला अभी चेक कर रहे हैं बाहर बैठो बताते हैं डॉक्टर ने कहा जरूर लेकिन उसके बाहर जाने के आदेश को मैने अनसुना कर दिया। वहीं खड़ा पापा के चेहरे को निहारता रहा। उस वक्त जिस दर्द से पापा गुजर रहे थे उससे कहीं ज्यादा दर्द मुझे हो रहा है। लग रहा था काश ये सपना हो, काश अभी फोन में लगे अलार्म की बेसुरी टिक- टिक मेरी नींद तोड़ दे, काश कोई मुझे जगा कर कहे जागो यार कितनी देर तक सोते रहोगे”? लेकिन ये सब बस खाली झूठे ख्यालात थे जो जानबूझ कर मैं महसूस करके खुद को दिलासा दे रहा था। तभी मेरे झूठे सपने से बने पत्तों के महल को डॉक्टर ने नर्म आवाज ने गिरा दिया।पेशेंट उमा शंकर के साथ आप हैं डॉक्टर ने कहा  जी हां बताईए मैने कहा। डॉक्टर बोले अभी सीनियर डॉक्टर अशोक कुमार जी को फोन किया है वो आ रहे हैं। जहां तक मुझे लग रहा है ये हार्ट अटैक का मामला है हार्ट अटैक? कितनी आसानी से कह दिया हार्ट अटैक का मामला है। अरे सही से चेक करिए कुछ और बात भी तो हो सकती है। हो सकता है गैस अटकी हो, या फिर गलत करवट सोने से भी तो कभी कभार दर्द हो जाता है। और जब सीनियर डॉक्टर को बुलाया है तो फिर कैसे खुद ही कह दिया की हार्ट अटैक है। इतनी भी क्या बेसब्री है। हर वो ख्याल जो तसल्ली दे सकें, एक के बाद एक आए जा रहे थे। इन्हीं ख्यालों के गले में हाथ डाले मैं इमरजेंसी रूम के दरवाजे के मुहाने पर खड़ा हो गया।

कुछ दस मिनट बाद हल्के गोल्डन फ्रेम का चश्मा लगाए घनी मूछें और लम्बे कद का एक शख्स इमरजेंसी में दाखिल हुआ। ये सीनियर डॉक्टर अशोक कुमार थे। शांत भाव से डॉ0 अशोक ने पापा से कुछ समान्य से सवाल पूछे जिसका जवाब दर्द भरी आवाज में पापा ने दिया। उसके बाद डॉक्टर साहब ने आले से कई बार चेकअप किया। आले को  स्टैथस्कोप कहते हैं उसी दिन पता चला। हम बेवकूफ तो हमेशा से उसे आला ही पुकारते आए हैं। कई स्तर की जांच के बाद डॉक्टर साहब ने जब पक्का कर लिया तो फिर मेरी तरफ देखा और गंभीर मुद्रा में पूछा आप ही हैं इनके साथ मैने जवाब में सिर हिला दिया। फिर बोले आईएमैं और डॉक्टर साहब इमरजेंसी कमरे से बाहर आ गए। डॉक्टर साहब ने कहा यार ऐसा है ये है तो हार्ट अटैक ही और काफी गंभीर हालत है इस वक्त अक्लमंदी इसी में है इनको तुरंत एडमिट कराओ आगे की जांचे बहुत जरूरी है। मैं देखता हूं आईसीयू में कोई बेड है कि नहीं इतना कह कर डॉक्टर साहब आगे बढ़ गए। कुछ समझ में नही आ रहा था। मेरा गला सूख गया था, कभी मैं सिर खुजा रहा था तो कभी हथेली से आंखे मसल रहा था। तभी फोन बजा.. मम्मी के नंबर से था। सोचा उठाऊ के रहने दूं। नहीं उठाता तो पता नहीं क्या- क्या सोचेंगी और उठाता भी हूं तो... कहूंगा क्या। तभी छोटा भाई बिट्टू इमरजेंसी से बाहर आया और बोला क्या हुआ ?” मैने फोन काटा और उसे सारी कहानी बता ही रहा था कि फिर फोन बजा। इस बार रीना थी। मैने फोन उठाया और रीना को कहा यार पापा की तबियत कुछ ज्यादा खराब है एडमिट कराना पड़ेगा। तुम पहले तो एक काम करो ये बात घर वालों को बता दो, लेकिन देखना आराम से बताना सब लोग परेशान न हो जाए, इस बात का ध्याना रखना। उसके बाद प्राशांत को फोन करो और टिकट कैंसिल करने को कह दो। अब इस हालात में दिल्ली जाना ठीक नहीं होगा। प्राशांत मेरा वो दोस्त है जो अपने पूरे परिवार के साथ मेरे हर दुख: सुख में चट्टान की तरह खड़ा रहता है। मैं रीना को बता ही रहा था कि दूसरी ओर फोन पर प्रशांत की कॉल वेटिंग आ रही थी। शायद खबर उस तक पहले ही पहुंच चुकी थी।      
हमने फटा- फट पापा को भर्ती कराने की प्रक्रिया पूरी की। इस बीच बड़े भाई अमित और मम्मी आ पहुंचीं थीं। सबको कॉन्फिडेंस में लेकर समझाया क्योकि मेरे अलावा वहां सब कमजोर दिल वाले थे। इसका मतलब ये नहीं के मै कोई बड़े शेर दिल  का था। मुझे खुद पर संयम रखना आता है बस और कुछ नहीं। विवेकानंद अस्पताल की पहली मंजिल पर पापा को आईसीयू में रखा गया था। सफेद दरवाजे पर नीली स्याही से लिखा आई सी यू मुझे जीवनभर याद रहेगा। एक के बाद एक उस कमरे में डॉक्टर और नर्सों का आना जाना लगा रहा। हम कुछ देर तक को बदहवास खड़े रहे। बस मन में ये सवाल चल रहा था क्या हो रहा होगा अंदर, थोड़ी-थोड़ी देर पर माईक के जरिए मरीजों के अटेंडेंट को पुकारा जा रहा था। हम अकेले नहीं थे हमारे जैसे बहुत से लोग आई सी यू के बाहर फर्श पर बैठे थे। कुछ एक ने तो चादर बिछाई थी लेकिन कुछ तो ऐसे ही चप्पल जोड़ा बना उसी पर बैठ गए थे। इसी दौरान प्रशांत सिंह और विवेक पाण्डेय (मेरे जिगरी दोस्त) आ पहुंचे थे। मैं, मेरे दोनो दोस्त प्रशांत और विवेक, मम्मी, भाई अमित, सुनील और आनंद सब वहां मौजूद थे। सबके चेहरे पर एक ही समानता थी, वो थी मायूसी।

वक्त बीत रहा था। लोगों की चहल कदमीं भी कम हो गई थी। थोड़ी- थोड़ी देर पर माईक पर आती आवाज में मरीजों के अटेंडेंट को पुकारा जा रहा था। हर आवाज पर ध्यान लगाना होता था। तभी पापा के अटेंडेट को पुकारा गया। सबने मेरी तरफ देखा। मैं समझ गया मुझे ही जाना होगा। मैं आगे बढ़ा आईसीयू के गेट पर जूते उतारे और अंदर दाखिल हुआ। अंदर घुसते ही बांई ओर पहला बेड था। गले से घुटनों तक हरे लिबास में पापा बैचेन लेटे हुए थे। पेशाब के रास्ते एक नली डाली गई थी जिसका दर्द चेहरे पर साफ झलक रहा था। उनकी नजरें मुझसे मिलीं, कुछ बोलने की हिम्मत नहीं कर पा रहे थे। उनकी आंखों को देखकर लगता था मानो कह रही हों, ले चलो मुझे यहां से मुझे यहां नहीं रहना। पापा से नजर हटा कर आगे बढ़ा। अंदर तीन नर्सें दो एक वार्ड ब्वाय, और एक डॉक्टर बैठी थीं। मैने डॉक्टर साहिबा से पूछा। जी डॉक्टर साहब बुलाया था आपने वो बोलीं किसके साथ हैं आप मैने पापा का नाम बताया। फिर डॉक्टर बोलीं आपके पिता जी को मेजर हार्ट अटैक हुआ है अभी मशीन पर रखा है। कल सुबह एन्जियोग्राफी करेंगे उसके बाद पता चलेगा ब्लॉकेज कितना है अगर ज्यादा ब्लॉकेज हुई तो सर्जरी करानी होगी आप उसकी तैयारी रखिएगा वो मुझे औऱ भी बहुत कुछ बताती गईं और मैं सुनता रहा। थोड़ी देर बाद मैं आईसीयू से बाहर निकला। वो सभी बेसब्र नजरें मेरा इंतजार कर रहीं थी जिन्होंने मुझे अंदर भेजा था। परिवार के सभी लोगों के मुंह से एक साथ निकला कैसी तबियत है अब। मैने लंबी सांस ली और कहा सब ठीक है डॉक्टर ने कहा है कल कुछ जांच करेंगे अगर सब कुछ नार्मल रहा तो कल घर भेज देंगे सबके चेहरे के भाव वैसे के वैसे ही थे। सब समझ रहे थे कि मैं उनको दिलासा दे रहा हूं। असल बात कुछ अलग ही है। लेकिन साथ ही सब ये भी समझ रहे थे मैं कभी झूठा दिलासा नहीं देता। पक्का सबकुछ ठीक हो जाएगा। मैं खुद को भी यही दिलासा दे रहा था कि हां सबकुछ ठीक हो जाएगा। मैने सबको घर जाने को कहा। ना नुकुर होते होते आखिर घंटे भर में सबको विदा किया। क्योकि मुझे पता था मेरे घर में लगभग सभी कमजोर दिल के हैं। औऱ ऐसे मुश्किल हालातों में यदि कोई निर्णय लेना हो तो घबरा जाते हैं। रात का 1:30 बज चुका था। मम्मी ने जाते- जाते मेरे हाथ में एक छोटा सा थैला थमा दिया। इस थैले में पानी की बोतल और एक चादर थी। सब के जाने के बाद भी दो लोग थे जो जाने को तैयार ही नहीं थे। प्रशांत औऱ विवेक पाण्डेय। ये दोनों अच्छे से जानते थे कि मेरी क्या हालत है। सबके जाने के बाद हम तीनों साथ खड़े थे। कोई किसी से बात नहीं कर रहा था। सबकी नजरें अलग थलग टिकी हुईं थीं। तभी विवेक खामोशी तोड़ते हुए बोला। अमां  कुछ खाए पिए हो या नहीं मैन जवाब में सिर हिलाकर हां कहा। विवेक बोला चलो ठीक है बड़ी देर हो गई है कुछ चाय वाय का इंतेजाम किया जाए। मैने कहा हां यार देर तो बहुत हो गई है एक काम करो तुम लोग भी जाओ। यहां कुछ खास काम तो है नहीं। जरूरत पड़ने पर मैं तो हूं ही यहां। प्रशांत ने कहा हां ठीक है चाय तो पी ली जाए फिर सोचते हैं क्या करना है। दोनो चाय लेने चले गए। मैने थैले से चादर निकाली और वहीं आईसीयू के पास रेलिंग के किनारे बिछा कर बैठ गया। आंखों में अजीब से जलन हो रही थी। शायद नींद के कारण थी। लेकिन ऐसे हालात में नींद कहां। कमर सीधी करने के लिए सोचा थोड़ा लेट लू। लेटते ही मच्छरों की सेना अपनी ताकत का एहसास दिलाने लगी। मैं भी कहां कम था उनसे दो दो हाथ करके मैने भी मच्छरों की लाशों के ढेर लगाने शुरू कर दिए। करीब 20 मिनट बाद प्राशांत और विवेक आ गए। दोनो ने चप्पल उतारी औऱ वहीं मेरे साथ जमीन पर बिछी चादर पर बैठ गए। प्लास्टिक के सफेद कप में हल्की थैली से चाय निकाली गई। बिस्किट और पानी की बोतल भी लाए थे। मैने कहा इसका क्या काम वो बोले रातभर रहोगे प्यास लगेगी तो कहां जाओगे। इस बात चीत में काफी वक्त बीत गया। रात का 3 बज गया। जबर्दस्ती ठेल कर उनको घर जाने पर मजबूर किया। वो बेचारे बिना मन के सही लेकिन, गए। गैलरी में बिछी चादर पर मच्छरों से लड़ते हुए अपने मन की सारी ताकत को इकट्ठा करने लगा। नजर सामने बड़ी सी शीशे की खीड़की पर थी। रात कुछ कमजोर सी पड़ने लगी। काले अंधेरे में केसरिया रोशनी घुलने लगी। धीरे धीरे अंधेरा एक उजाले में बदलने लगा। जीवन की पहली रात थी जो ऐसी गुजरी थी।

ऑपरेशन तो करवाना ही पड़ेगा
सुबह हुई। लोगों की चहल कदमीं शुरू हुई। हॉस्पिटल का बाकी स्टाफ आना शुरू हुआ। मरीजों के पर्चे बनने लगे। नए पुराने मरीज अपने दर्द को बयां करने लगे। देखकर लग रहा था खुश है कौन इस संसार में सब तो दुखी हैं। यहां सिर पर टोपी थी लेकिन वो मुस्लिम नहीं था, माथे पर तिलक था लेकिन वो पंडित नहीं था, हर धर्म हर जाति के लोगों को यहां एक अलग ही धर्म ने जकड़ रखा था। और वो धर्म है बीमारी। खैर.. देखते ही देखते करीब 11 बज गए। घर से मम्मी और छोटा भाई आ चुके थे। कई और डॉक्टर्स आए। पापा की एन्जियोग्राफी शुरू हुई। ये नाम मैने पहली बार सुना था। डॉक्टर ने मुझे बुलाया और पापा की हो रही एन्जियोग्राफी को लाइव दिखाया। कुछ कैमिकल सा डालते हैं शरीर की नसों में जहां- जहां पर वो कैमिकल जाकर रुकता है वहां की नसें एक गहरे  रंग में नजर आने लगती हैं। मैं मशीन की स्क्रीन पर देख जरूर रहा था पर समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। मैने डॉक्टर से पूछा सर सब ठीक तो है ना। डॉक्टर का जवाब था.. ठीक ही तो नहीं है ट्रिपल वेसल डिजीज है। करीब 90 प्रतिशत ब्लॉकेज है जितना जल्दी हो सके बायपास सर्जरी करवाओ वरना कुछ भी हो सकता है। मैने पूछा सर ऑपरेशन के अलावा कुछ औऱ नहीं हो सकता वो बोले ऑपरेशन ही आखिरी चारा है अब बॉलाकेज कम होती तो दवा से ठीक किया जा सकता था लेकिन इतनी ब्लॉकेज में रिस्क लेना ठीक नहीं होगा, मेरा सुझाव तो ये है जितना जल्दी हो सके ऑपरेशन करवा लो बाकि आपकी मर्जी
एक पल तो मानो सुन्न ही हो गए कान। फिर हिम्मत जुटाई और पूछा सर कितना खर्च आएगा इस ऑपरेशन में  डॉक्टर ने बताया सही सही तो बताना मुश्किल होगा लेकिन मान के चलो तीन से चार लाख। इतना पैसा ? मन ही मन मैने सोचा। इससे पहले मेरे खानदान मे किसी ने ऑपरेशन का नाम भी नहीं सुना था। लेकिन मुसीबत क्या बता के थोड़े ही आती है। मैने आगे पूछा। डॉक्टर साब ऑपरेशन तो करवाना ही है लेकिन फिलहाल क्या होना है पापा को यहीं भर्ती रखेंगे या... डॉक्टर बोले नहीं फिलहाल दवाईयां लिख देते हैं और शाम को छुट्टी कर देंगे। ले जाओ लेकिन जल्द से जल्द इनकी बॉयपास सर्जरी करवाओ
मैं बुझे मन से बाहर आया। मेरे चेहरे के भावों से बाकी के लोगों का हौसला बनता बिगड़ता था। इसलिए मुझे बड़ा सम्भलना पड़ रहा था। बताना तो था ही सबको कि क्या होना है लेकिन सबको समझते हुए। खैर सबको सूरते हाल बताया। अब आगे का प्लान ये था कि पापा को घर ले चलने की तैयारी करें और शहर के चुनिंदा हार्ट स्पेशलिस्ट से सलाह मशवरा किया जाए।
शाम हुई डॉक्टर से मुलाकत की तो उन्होने कहा आज नहीं कल सुबह छुट्टी करेंगे आज रात और देखेंगे। एक रात और बीती दूसरे दिन हॉस्पिटल से डिस्चार्ज की सारी खानापूर्ती की। अभी निकलने वाले ही थे कि पापा के कुछ दोस्त आ गए, कार लाए थे तो घर लाने में आसानी हो गई। अगले दस मिनट बाद हम लोग घर पर थे। पूरे घर में एक अजीब सी खामोशी फैली थी। तभी तीन साल के अनुज औऱ अंशिका (भाई के बच्चे) आ गए उनकी नादानियां देखकर कुछ पल के लिए ही सही लेकिन सबके चेहरों पर ना चाह कर भी हल्की हंसी आ ही गई। खैर किसी तरह से ये दिन भी बीता।
अगली सुबह मैने पापा की सारी रिपोर्ट अपने बैग में डाली। ऑफिस पहुंच कर सबसे पहले शहर के बेहतरीन 5 हार्ट डॉक्टर्स की लिस्ट बनाई। जिनमें सर्जन, फिजीशियन, होम्योपैथिक, आयुर्वेदिक लगभग सभी किस्म के डॉक्टर्स थे। एक- एक करके सबको रिपोर्ट दिखाई। सबका एक ही जवाब था। ऑपरेशन में देर मत करो तुरंत कराओ। साथ ही कहां कराओ वहां का लिंक मुफ्त में दे रहे थे। समझ में आ रहा था लिंक क्यों मिल रहा है। सब अपने दिए लिंक को बेहतरीन बता कर वहां ऑपरेशन कराने की सलाह दे रहे थे। सभी सलाह ठीक लग रहीं थी। लेकिन आसमंजस में था क्या करूं। घर में कोई ऐसा नहीं था जो इसपर सलाह देता या कोई रास्ता बताता। कहने को बहुत बड़ा परिवार है लेकिन इस तरह के मामलों में आगे बढ़ कर निर्णय लेने वाला कोई नहीं था। इसका मतलब ये नहीं कि मैं बड़ा समझदार था बल्कि बाकि के लोग मुझसे जल्दी घबरा जाते थे। इसलिए जो करना था मुझे ही करना था।
हफ्ते भर की मशक्कत के बाद दिल्ली में डॉक्टर ओपी यादव का अपॉइंटमेंट मिला। लोगों से राय ली, इंटरनेट पर जानकारी जुटाई। पता चला करीब 12 हजार से ज्यादा ऑपरेशन कर चुके हैं डॉक्टर ओपी यादव। उनके अनुभव पर उंगली उठाने की कोई गुंजाइश नहीं लग रही थी। डेट फिक्स हुई ट्रेन का टिकट कराया और दिल्ली के लिए तैयारी शुरू कर दी। अभी सिर्फ डॉक्टर साहब से मशवरा करना था कि क्या करें, या कब ऑपरेशन की डेट मिलेगी सो वापसी का टिकट भी करा लिया था। मिनट मिनट कीमती था सो दिल्ली से वापसी का टिकट फ्लाइट से करा लिया था। पापा आजतक कभी हवाई जहाज पर नहीं चढ़े थे। फ्लाइट से वापसी के ख्याल से ही पापा घबरा रहे थे। बचपन से अब तक उनके चेहरे पर घबराहट के ऐसे भाव नहीं देखे थे। किसी भी इंसान के लिए उसका सबसे बड़ा हीरो उसके पिता होते हैं। लेकिन आज मेरा हीरो मुसीबत में था।

चेकअप के लिए पहुंचे दिल्ली
फिलहाल तो दिल्ली सिर्फ चेकअप के लिए जाना था तो उस हिसाब से तैयारी कर रहे थे। रीना भी शादी के बाद अपने घर नहीं जा पाई थी तो सोचा जा ही रहे हैं तो रीना को भी लिए चलते हैं। तो उसका भी टिकट करा लिया। रात की ट्रेन थी, पूरी तैयारी के साथ हम लोग स्टेशन पहुंचे। ट्रेन अपने तय वक्त पर थी। कुछ देर इंतजार के बाद प्लेटफार्म नंबर एक पर ट्रेन लगी और हम लोग अपने बोगी में दाखिल हुए। दो मिडिल और एक लोअर बर्थ थी। लगेज सेट करने के बाद थोड़ी देर तक तो हम यूं ही बैठे रहे। गाड़ी चलने के करीब 5 मिनट पहले मिडिल की सिट को एडजेस्ट किया, चादर बिछाई और पापा को सोने को कहा। पापा नीचे की सीट पर और हम लोग बीच की दोनों सीटों पर लेट गए। ट्रेन ने स्टेशन से खिसकना शुरू किया और धीरे-धीरे रफ्तार में आ गई। कब हमें नींद आ गई पता ही नहीं चला। आंख खुली तो बाहर गाजियाबाद स्टेशन नजर आ रहा था। यानि आधे घंटे बाद हम दिल्ली पहुंचने वाले थे। पापा पहले ही उठ चुके थे, बाजुएं बांधे पालथी मारे अपनी सीट पर बैठे बाहर का नजारा ले रहे थे। मैने रीना को उठाया और हमने सामान को समेटना शुरू किया। तभी वरुण का फोन आया। वरुण मेरा दोस्त है। उसने किराए की कार का इंतजाम किया था ताकि पापा को ज्यादा चलना न पड़े। मैने फोन उठाया बात की उसने ड्राइवर का नंबर दिया। अबतक हम दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पहुंच चुके थे।
हम लोग स्टेशन के बाहर निकले और ड्राइवर को फोन किया। ड्राइवर
स्टेशन के सामने बनीं पार्किंग में अपनी बताई जगह पर सफेद इंडिका कार लिए काफी देर पहले से मौजूद था। हम लोग कार में बैठे तभी रीना के पास उसके भाई निखिल का फोन आया। वो स्टेशन पहुंचने वाला था रीना को ले जाने के लिए क्योकि हम तो वरुण के घर जा रहे थे। स्टेशन के बाहर रोड के किनारे हम निखिल का इंतजार करने लगे। कुछ 10 मिनट बाद निखिल अपने एक और भाई के साथ आया और मुलाकात के बाद मैने उसे जाने को कहा साथ में रीना को भी भेज दिया। जाते- जाते निखिल में मेरी जेब में 100 के नोटों की एक गड्डी रख दी। मेरे लाख मना करने पर भी वो नहीं माना और मजबूरन मुझे वो पैसे लेने पड़े। रीना और उसके दोनों भाई अपने घर को चल पड़े और मैं वरुण के घर। कुछ आधे घंटे के बाद हम न्यू अशोक नगर में वरुण के घर पर थे।
फ्रेश वगैरह होने के बाद हमने हल्का नाश्ता किया और नेशनल हार्ट इंस्टिट्यूट (NHI) रवाना हुए। 45 मिनट के सफर के बाद हम लोग हॉस्पिटल पहुंच चुके थे।

साउथ दिल्ली में कैलाश कॉलोनी मेट्रो स्टेशन के पास NHI काफी फेमस हॉस्पिटल था।
हॉस्पिटल में दाखिल हुए तो देखा रिसेप्शन भरा पड़ा था लोगों से। यहां मौजूद लोगों में कुछ तो डॉक्टर साहब से मशवरा करने आए थे मेरे तरह, कुछ का ऑपरेशन हो चुका था,
और ज्यादातर मरीजों को तीमारदार थे। खैर.. हमारा अपॉइंटमेंट 11 बजे का था और हम 10:45 पर डॉक्टर साहब के वेटिंग रूम में थे। करीब पौना घंटा इंतजार करने के बाद हमारा नंबर आया। डॉक्टर साहब के पीए ने हमसे सारे कागजात, सीडी वगैरह ले ली। हम डॉक्टर साहब के कमरे में गए। भोले से चेहरे पर हल्की मुस्कान लिए डॉक्टर ओ पी यादव ने हमारा अभिवादन किया और बैठने का इशारा किया। हम बैठ गए। डॉक्टर साहब के पास पापा के कागज पहले ही पहुंच चुके थे। उनकी नजर कागजों पर थी करीब 2 मिनट तक कागजों को निहारते रहे। फिर डॉक्टर साहब ने पापा से कहा, सिगरेट बहुत पीते हैं ? पापा ने कहा जी पीते तो हैं’ 
डॉक्टर- कब से पी रहे हैं?
पापा- करीब 20 साल तो हो ही गया है। (सकपकाते हुए मध्यम आवाज में)
डॉक्टर- 20 साल ? (आश्चर्य के साथ) आपकी उम्र कितनी है
पापा- यही कोई साठ के आस पास होगी।
डॉक्टर- तो क्या 40 साल की उम्र में पीना शुरू किया था आपने (चोरी पकड़ते हुए)
मैने बीच में बात काटते हुए डॉक्टर साहब से कहा सर सिगरेट बहुत पीते हैं एक हट नहीं पाती दूसरी जला लेते हैं। पापा मेरी ओर भौवे चढ़ाए देखने लगे। खैर.. फिर उन्होने सब कुछ साफ साफ बता दिया। हम जो सीडी साथ लाए थे वो डॉक्टर साहब ने अपने कमप्यूटर में लगाई और हमको दिखाते हुए बोले- हालात ऐसे नहीं है कि दवा से ठीक किए जा सकेंऑपरेशन के बिना बात नहीं बनेगी। हालाकि ऑपरेशन के लिए डॉक्टर ओपी यादव की डेट महीनों नहीं मिल पाती है लेकिन किस्मत से हमें उन्होने हमें 4 दिन बाद यानि 8 अप्रैल 2015 की डेट दे दी। हमने अपने कागज समेटे और आगे की तैयारी के लिए निकल पड़े। हॉस्पिटल से निकल पर पापा को रीना के घर पर छोड़ा और मैं खुद अपने दोस्त अभिषेक के घर निकल गया। ससुराल किसी भी हो वहां ठहैरना मुझे बचपन से नहीं पसंद था, और ये तो मेरी थी।

पापा का पहला हवाई सफर
5/03/2015 पापा मेरी ससुराल नरेला में थे जो कि मेन दिल्ली से करीब 30km  की दूरी पर है और मैं अपने दोस्तों के साथ गुड़गांव में। मैं एक छोर पर था तो पापा दूसरे छोर पर। पापा से फोन पर बात हो चुकी थी हम लोग जहांगीरपुरी स्टेशन पर सुबह के ठीक 11 बजे मिलने वाले थे। मैं वक्त पर पहुंच चुका था फोन पर बात हुई पापा रीना के भाईयों के साथ पहुंच ही रहे थे। खैर थोड़ी देर में पहुंच ही गए। रीना के भाईयों ने पापा को मेट्रो में सफर करने के लिए टोकन लेकर दिया औऱ अंदर दाखिल कराया। मैं और पापा जहांगीरपुरी से नई दिल्ली मेट्रो स्टेशन के लिए निकले। बेसमेंट और पोर्डियम स्तर के कई स्टेशनों से होते हुए नई दिल्ली पहुंचने में हमें करीब 40 मिनट लगा। नई दिल्ली से एयरपोर्ट जाने के लिए एक अलग तरह की मेट्रो लाइन है, स्टेशन भी अलग है। हम एयरपोर्ट स्टेशन पहुंचे अपने और पापा के लिए एयरपोर्ट का टोकन लिया। सामान्य मेट्रो से करीब 10 गुना महंगा था इसका किराया। चेकिंग प्वाइंट से होते हुए हम बेसमेंट में एयपोर्ट एक्सप्रेस के प्लेटफार्म पर पहुंचे। इंफ्रास्ट्रक्चर और डिजाइन को देख कर समझ आ गया कि दस गुना पैसे किस बात के हैं। खैर.. थोड़ी देर में ट्रेन प्लेटफार्म से गले मिली, मेट्रो के दरवाजों के साथ ही प्लेटफार्म के दरवाजे भी खुद ब खुद खुल गए। हम दाखिल हुए अंदर सामान्य मेट्रो कि तरह लोग एक के ऊपर एक चढ़े हुए नहीं थे। यहां का नजारा काफी अलग था। डिब्बे की कुल सीटों  के मुकाबले 10 % भी यात्री नहीं थे, और जो थे वो भी अपने में मग्न थे। रह रह कर अगर कोई आवाज सुनाई दे रही थी तो वो भी कम्पयूटराइज्ड शम्मी नारंग साहब की आवाज थी, जो कि आने वाले स्टेशनों की सूचना दे रहे थे। करीब 25 मिनट बाद हम IGI एयरपोर्ट पर थे। ट्रेन रुकी, सामान निकाला और करीब 300 मीटर चलने के बाद हम एयरपोर्ट के एंट्री प्वाइंट पर पहुंचे। फ्लाइट उड़न में अभी 2 घंटे का वक्त था। गेट पर CISF का जवान मुस्तैदी के साथ लोगों के टिकट चेक कर रहा था। गेट पर एक महिला और दो आदमी क्रम बद्ध तरीके से लगे हुए थे। डार्क नीला कोट पहने एक शख्स के पीछे मैं भी खड़ा हो गया मेरे पीछे पापा हो लिए। हमारा नंबर आया। टिकट और पहचान पत्र हम लोग पहले ही निकाल चुके थे बस टिकट दिखाकर एंट्री करनी थी। सुरक्षाकर्मी ने मेरा टिकट देखा और मुझे बोला सर आप गलत आ गए हैं, जिस फ्लाइट से आपको जाना है वो यहां नहीं जाती हैनहीं जाती मतलब, अरे फ्लाइट एयरपोर्ट से नहीं जाती तो और कहां से जाती है। मैने कहा। सुरक्षाकर्मी बोला, सर, ये फ्लाइट यहां के बजाय 1D से जाती है जो कि यहां से करीब 10 km दूर है, फटाफट जाईए एकपल के लिए तो मेरे होश ही उड़ गए थे इतनी बड़ी गलती मैं कैसे कर बैठा। खैर.. जल्दी से वापस मुड़़े। गेट के पास ही कई तरह की टैक्सियां खड़ी थीं। हमारी हड़बड़ाहट को देखकर टैक्सी के कई ड्राइवर तुरंत भांप गए कि हमें पालम एयरपोर्ट जाना है। एक ड्राइवर आगे आया और बोला हां साहब गलत आ गए हैं क्या चलिए मैं छोड़ देता हूं उस ड्राइवर ने लपक कर हमारा सामान उठाया और गाड़ी की डिग्गी में डाला फटाफट हम भी गाड़ी में बैठ लिए। ड्राइवर मुस्तैदी से आगे बढ़ा। करीब तीन किलोमीटर चलने के बाद मुझे याद आया हमने कियाए की तो बात की ही नहीं। मैने पूछा भईया पैसे तो आपने बताए ही नहीं। वो बोला साहब हमारा फिक्स रेट है 350 रुपया। दूरी को देखते हुए पैसे काफी ज्यादा थे लेकिन कर भी क्या सकते थे अब तो गाड़ी अपना आधा सफर तय करने वाली थी। बात आई गई हो गई। थोड़ी देर में हम एयरपोर्ट के अंदर थे। गेट पर उतरते ही फटाफट हम अंदर गए। बोर्डिंग पास लेना नहीं था क्योकि मैने वेब चेकइन पहले ही कर ली थी।

पग बढ़ाते हुए हम सुरक्षा जांच के लिए पहुंचे। गेट पर ज्यादा भीड़ नहीं थी पूरी तरह से जांच के बाद हम लाउंज में दाखिल हुए। घड़ी पर नजर गई तो देखा अभी भी फ्लाइट में 45 मिनट का वक्त है। हमने लाउंज में पड़ी आराम कुर्सियों का सहारा लिया। पापा वहां की चकाचौध को निहार रहे थे। पहली बार एयरपोर्ट जो आए थे। भले ही इतनी बड़ी बीमारी ने पापा को घेरा हो लेकिन चेहरे पर उसका असर बिल्कुल भी नहीं था। अभी भी सफेद मूंछे ताव खा रही थीं और हम सकपकाए रहते थे कि कब बिगड़ जाएं कुछ पता नहीं। थोडी देर बैठने के बाद मै एक दुकान पर गया और पानी की एक बोतल मांगी। उसने भवें उचकाते हुए पानी की बोतल की ओर इशारा किया। यानी यहां खुद ही उठाना होता था और पैसे काउंटर पर देने होते थे। इस बात से मैं अंजान था। मैने बोतल उठायी और पैसे पूछे दुकानदार अंग्रेजी में बोला ओनली 45. मैंने कहा फोर्टी फाइव वो भी ओनली। मैने कहा भाई इस हिसाब से तो 90 रुपए लीटर पानी हो गया। दुकानदार ने ज्यादाकुछ नहीं कहा मेरी ओर भवें चढ़ाते हुए बोला आप सही कह रहे हैं लेकिन एयरपोर्ट का यही रेट है खैर.. पानी लेकर मैं पापा के पास आया। पापा ने बोतल को मुंह से थोड़ी दूर रखते हुए दो घूंट मारे और मुझे बोतल थमा दी। बैठे- बैठे वक्त बीत गया और हमारी फ्लाइट का एनाउंसमेंट हुआ। हम उठे और गेट नंबर 9 की ओर चल पड़े जैसा की एनाउंस किया जा रहा था। गेट पर पहले ही लोगों की भीड़ थी। हम भी कमर के बराबर स्टील के एक पोल से दूसरे पोल पर जाती नीली पट्टीयों वाली टेड़ी मेड़ी लाइन का हिस्सा हो गए। हमारा नंबर आया गेट पर खड़े शख्स ने हमारा बोर्डिंग पास देखा आगे जाने को कहा। आगे बढ़ते ही गेट पर एक और सुरक्षा कर्मी था जो लोगों के बैग में लगे टैग चेक कर रहा था। पापा आगे थे और मैं उनके पीछे। पापा को सुरक्षा कर्मी ने जाने दिया और मुझे रोक लिया। मुझे उसने दोबारा से सुरक्षा जांच में जाने को कहा। मैं समझ नहीं पाया उसने ऐसा क्यों किया, गेट के बाहर खड़े पापा के चेहरे पर थोड़ी सी घबराहट आ गई। मैं लाइन से अलग हुआ और अपने बैग में लगे टैग को देखा, उसमें सुरक्षा जांच की मुहर नहीं थी। मैने पापा को आगे चलने का इशारा किया और खुद फटाफट वापस सुरक्षा जांच के लिए दौड़ पड़ा। सुरक्षा गेट पर वापस मेरा सामान स्कैनिंग मशीन में डाला गया और उसके बाद टैग पर मुहर लग गई। मैं फटाफट वापस दौड़ा गेट अब पूरी तरह से खाली हो चुका था। मैं आखिरी पैसेंजर था जिसके लिए बस खड़ी थी हालाकि पहले से बस में करीब 5-7 लोग मौजूद थे यानि पापा प्लेन के लिए जा चुके थे। मैं बस में बैठा, बस के हाइड्रोलिक गेट बंद हुए और करीब 5 मिनट चलने के बाद बस प्लेन के पास पहुंची। प्लेन की अगले गेट पर लगी सीढ़ी के पास पापा खड़े मेरा इंतजार कर रहे थे। पूरी तरह से बंद आती हुई एसी बस के शीशे से जब पापा ने मुझे देखा तो राहत भरी सांस ली। उन गिने चुने लोगों के साथ मैं बस से उतरा तो सबसे पहले पापा ने पूछा क्या हो गया था। मैने बैग पर लगे टैग की मुहर दिखाई तो वो  समझ गए क्या माजरा था। हिलती-ढुलती सीढ़ियों से चढ़ते हुए हम प्लेन में दाखिल हुए। गेट पर खड़ी सुंदर एयर होस्टेस ने हमारा मुस्कुराकर अभिवादन किया। आगे बढ़ते हुए हम अपनी सीट पर पहुंच गए। खिड़की के साथ ही बीच की सीट भी हमारी थी। मैने पापा को खिड़की वाली सीट पर बिठाया और खुद बीच वाली सीट पर बैठ गया। मैने बैठते ही सीट बेल्ट लगा ली, पापा ने सीट बेल्ट कमर पर रखी और दोनो हाथों में बेल्ट पकड़े समझ नहीं पा रहे थे कि लगाएं कैसे, तभी मैने उनकी सीट बेल्ट को बक्कल में फंसाते हुए कस दिया। अब वो आराम से बैठ गए लेकिन चेहरे पर थोड़ी घबराहट दिख रही थी। प्लेन में बज रहा वेस्टर्न संगीत थोड़ा मध्यम हुआ और विमान यात्रा संबंधी सूचनाए शुरू हो गईं। इस बीच हाथों में सीट औऱ मास्क लिए एयरहोस्टेस सीटों के बीच बने गलियारे में खड़ी हो गईं और स्वचलित निर्देशों के साथ सीट बेल्ट और ऑक्सीजन मास्क लगाने के तरीके समझाने लगीं। अगर आदमी न भी डर रहा हो तो भी आपातकाल और पानी में प्लेन की लैंडिंग की बात कर ये लोग और डरा देते हैं। खैर.. प्लेन के चलने का आदेश हुआ और धीरे धीरे बढ़ते हुए प्लेन रनवे के स्टार्टिंग प्वाइंट पर पहुंच गया। स्टार्टिंग प्वाइंट पर करीब 30 सेकेंड के लिए रुका और फिर... केबिन की बत्तियां हल्की हुईं और जबर्दस्त रफ्तार.. पूरे शरीर में सिहरन पैदा हो गई थी। करीब 30 सेकेंड तक रनवे पर घड़गड़ाने के बाद अचानक एक अजीब सी आवाज जो कानों को सुन्न कर रही थी। बार बार कान बंद हुए जा रहे थे और गले से लार गटकने पर खुल रहे थे लेकिन कुछ ही देर में फिर बंद हो जा रहे थे। इस बीच पापा पर नजर पड़ी पापा एकटक खिड़की पर नजरे जमाएं नीचे की ओर देख रहे थे। छोटे छोटे घर, सांपों सी रेंगती नदियां, चीटियों सी रेंगती गाड़ियां, दूर तक नजर आते हरे खेत, बड़ा ही शानदार नजारा था तभी तो हर कोई वेब चेकइन के वक्त खिड़की की सीट खोजता है। और हां एक बात और कभी कभी विंडो सीट मिलने पर दुख भी होता है। पता है कब ? जब कभी
जहाज के पंखों के ऊपर वाली सीट मिल जाए तो। कहने को तो सीट खिड़की वाली होती है लेकिन दिखता है चबूतरे की शक्ल वाला बड़ा सा विंग। पापा पहली बार प्लेन में बैठे थे। घबराहट थी लेकिन चेहरे पर नहीं आने दे रहे थे। मैने अगली सीट के पॉकेट में रखी हुई फ्लाइट मैनुअल और एयरलाइंस की मैगजीन निकाली और पापा को देकर पढ़ने का इशारा किया। पापा भी बेमन मैगजीन के पन्ने पलटने लगे। करीब 40 मिनट बाद अनाउंसमेंट हुआ की हम लखनऊ में लैंड करने वाले है। पापा ने मेरी तरफ देखा और बोले बड़ी जल्दीमैने कहा हां पहुंच गए। प्लेन आसमान से विदा लेते हुए धरती का दामने थामने लगा। थोड़ी ही देर में लैंडिंग हो गई। कॉकपिट प्लेन फिट होता इससे पहले लोगों में बेचैनी बढ़ गई। अपनी चीजों को समेटना, लगेज बॉक्स से सामान निकालना, पूरी तैयारी के साथ लोग सीटों के बीच बने गलियारे में किसी सिटी बस की तरह लाइन लगाकर खड़े हो गए। हम बैठे ही रहे। करीब 10 मिनट के बाद गेट खुला और लोग ऐसे निकल कर जाने लगे जैसे जहाज वालों ने उन्हें बंधक बनाकर रखा था। हम भी निकले, एयरपोर्ट के बाहर प्रशांत सिंह भाभी के साथ कार लिए हमारा इंतजार कर रहे थे। ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी प्रशांत गेट के पास ही मिल गए। करीब 25 मिनट के सफर के बाद हम लोग घऱ पहुंच गए। घर पर सब लोग इंतजार कर रहे थे। घर में एंट्री करते ही सभी तुरंत आ गए, सब जानना चाहते थे अब क्या होना है।

वक्त पर अपने ही काम आते हैं
ऑपरेशन की तारीख तुरंत ही मिल गई थी जो कि बड़ी ही अहम बात थी। अब सबसे पहले जो मशक्कत होनी थी वो थी पैसों की। 2 लाख रुपए तो ऑपरेशन में लगने थे उसके अलावा आने जाने का खर्च, दिल्ली जैसे शहर में खाने का खर्च, और कोई पक्का नहीं था कि ऑपरेशन में ही खर्च कुछ और बढ़ जाए यानि करीब 3 लाख रुपए की तैयारी तो करनी ही थी। मैं हमेंशा की तरह फक्कड़ था। मेरी तो कुल तनख्वाह ही 10 हजार थी जो कि महीने की 7 तारीख को ही दिखती थी। लेकिन कहते हैं न अच्छे काम और अच्छी नीयत कहीं तो काम आ ही जाते है। जैसे ही लोगों को पता चला कि ऑपरेशन में इतने पैसे खर्च होने हैं। मदद के हाथ खुद ब खुद बढ़ कर आगे आने लगे। सबसे पहले बड़े भाई(नीरज दादा) ने अपना फर्ज निभाते हुए 50 हजार रुपए दिए। फिर छोटे भाई (बिट्टू) ने करीब 30 हजार का इंजताम किया। मुझसे बड़े भाई(बच्चन) जहां काम करते थे उनके मालिक खुद घर आकर 20 हजार रुपए दे गए। इसी बीच नरेश मामा ने फोन किया और पूछा, कितना पैसा चाहिए। मैने कहा अभी इंतजाम कर रहा हूं कम पड़ेगा तो बताउंगा। सच तो ये था कि मैं मामा से पैसे लेना चाह ही नहीं रहा था। दोस्त बहुत थे और एक आवाज पर दौड़े चले आते, लेकिन मैने कुछ एक से ही मदद लेना बेहतर समझा। विवेक पाण्डेय और राजेश वर्मा। इन दोनो को ही मैने मदद मांगी। दोनो ने बिना वक्त गंवाए 50-50 हजार रुपए मुझ तक पहुंचा दिए। जितनी जरूरत थी उतना इंतजाम तो हो गया था। लेकिन इमरजेंसी के लिए भी कुछ रखना था, अचानक जरूरत पर कहां भागेंगे। नरेश मामा को फोन किया बजाय पैसा मांगने के मैं उनको बताने लगा, कब जा रहे हैं कैसे ऑपरेशन होगा, तभी मामा ने बात काटते हुए कहा सुनो हम घर आ रहे हैं रुकना वहीं बात करते हैं ये बात 6 अप्रैल की है सुबह के करीब 11 बज रहे थे। यानि इसी दिन हमें दिल्ली के लिए निकलना था। वक्त बीता थोड़ी देर बाद मामा घर आ गए। मामा ने मुझे अलग बुलाया और एक हजार के नोटों की पूरी गड्डी थमा दी, बोले कम हो तो और दूं। मैने कहा नहीं बस हो जाएगा। इस तरह से मेरे पास 3 लाख रुपए जमा हो गए। अब मेरी हिम्मत कई गुना बढ़ चुकी थी। अब तो बस इंतजार था दिल्ली पहुंचने का। 



फिर दिल्ली की तैयारी
दिल्ली से हम 5 अप्रैल को लौटे थे, अगले ही दिन यानि 6 अप्रैल को पूरी तैयारी के साथ फिर दिल्ली जाना था। क्योकि डॉक्टर साहब ने 8 अप्रैल की तारीख ऑपरेशन के लिए तय की थी, और हमें 7 अप्रैल को पापा को अस्पताल में भर्ती कराना था। प्री ऑपरेशन चेकअप के लिए। हमने तैयारी वगैरह की, ट्रेन की टिकट कराने जा रहे थे तो मम्मी ने कहा हम भी चलेंगे। मैं चाह रहा था कि मम्मी ना चलें बेकार परेशान होंगी, लेकिन मेरी एक न चली। मम्मी का टिकट भी कराना पड़ा। अपने खानादान में पहली बार किसी का ऑपरेशन होने जा रहा था, सब घबराए से थे और मैं कुछ ज्यादा क्योकि अगवानी मैं ही कर रहा था। अकेले क्या क्या करता और दिल्ली में दौड़ भाग भी करनी सो छोटे भाई को भी साथ में ले लिया।
दिन बीता 6 अप्रैल 2015(सोमवार) दिन की शुरूआत हुई। उठते ही फटाफट तैयार होकर ट्रेन का टिकट कनफर्म कराने निकल पड़ा। हजरतगंज में DRM ऑफिस पहुंचा कोटा लगाने वालों की लंबी लाइन थी। एक दो टिकट हो तो कोई बात नहीं लेकिन यहां 4 लोगों के टिकट पक्के कराने थे। ऐसे मौकों पर हमारे प्रिय मित्र टीवी न्यूज के कैमरामैन  राजेश पाण्डेय जी बड़ी मदद करते हैं। उस दिन भी वही याद आए। फोन लगाया कुछ ही वक्त में पाण्डेय जी DRM ऑफिस में प्रकट हो गए। पाण्डेय जी सीधे सीनियर DCM के कमरे में घुसे मुझे भी ले गए, सारी कहानी बताई, DCM साहब ने हमें आश्वस्त किया कि सीट कनफर्म हो जाएगी। DCM साहब के कमरे से बाहर निकले, पाण्डेय जी का शुक्रिया अदा किया और दूसरी चीजों को निपटाने निकल पड़े। दिन बीता रात हुई हम लोग तैयारी किए बैठे थे इंतजार था तो बस टिकट कनफर्म होने का। मैने तो ठान रखा था हो या ना हो जाना तो है ही। इस लिए तैयारी पूरी थी। खैर.. किस्मत ने साथ दिया और चार्ट बनते ही मैसेज आ गया, कोटा लग गया था। दो ही सीटे कनफर्म हुईं थी सोचा चलो एक पर पापा मम्मी एडजेस्ट हो जाएंगे और एक पर मैं और बिट्टू। ट्रेन का वक्त नजदीक आ रहा था, तय वक्त से डेढ़ घंटे पहले ही हम स्टेशन के लिए निकलने लगे। घर में कार तो थी नहीं इस लिए ऑटो बुलवा लिया था जो हमें स्टेशन तक छोड़ने वाला था। जैसे ही हम घर से बाहर निकलने को हुए, पूरा घर गेट पर आ गया, घर ही नहीं बगल में चाचा का परिवार भी बाहर गेट पर था, वो अलग बात है कि उनके घर से बोलचाल बंद थी। इसके अलावा मोहल्ले के कई लोग घर के आस पास शांत भाव में खड़े हमें जाते हुए देख रहे थे। सबके चेहरे पर एक खामोशी थी। पता नहीं किसी ने गौर किया कि नहीं मैं सबके चेहरे देख रहा था। ऐसा भाव पहले कभी नहीं देखा था। इसी बीच मैने ऑटो वाले को चलने का इशारा किया। करीब 15 मिनट बाद हम स्टेशन पर थे ट्रेन अपने तय वक्त पर थी और हम प्लेटफार्म पर। ट्रेन स्टेशन पर लगी और हमने अपनी सीट पर कब्जा जमाया। थोड़ी ही देर के बाद ट्रेन प्लेटफार्म से सरकने लगी। ट्रेन को चले कुछ 20 मिनट हुए होंगे TTE  आया, टिकट दिखाया तो उसने बोला कुछ यात्री आए नहीं है तो आपकी 2 सीटें और कनफर्म हो जाएंगी, जो कि थोड़ी देर बाद हमें मिल भी गईं। ट्रेन की रफ्तार और रात बढ़ती चली गई और साथ ही हमारी नींद भी।

जब शुरू हुआ इम्तेहान
7 अप्रैल 2015 मंगलवार, ट्रेन की दो फिट चौड़ी सीट पर रात भर झूलने के बाद सुबह जब आंख खुली तो गाड़ी धीरे-धीरे रेंग रही है। रफ्तार ऐसी की मानो ट्रेन भी थक कर चूर हो गई हो। ऊपर की सीट से सिर बचाते हुए उठे तो देखा पापा पहले ही उठे बैठे थे। लोअर बर्थ पर पालथी मारे बैठे खिड़की से बाहर निहार रहे थे। बगल में मम्मी भी दोनों हाथ बांधे चुपचाप बैठी थी। बाहर नजर पड़ी तो देखा एक छोटा स्टेशन लगभग पार हो चुका था। स्टेशन के आखिरी छोर पर नजर पड़ी देखा, चौकोर पीले पत्थर पर काले शब्दों  में लिखा था तिलक ब्रिज। यानि 15 मिनट बाद हम नई दिल्ली स्टेशन पर होंगे। मै फटाफट उठा और छोटे भाई को उठाया, सीट के नीचे से समान निकालना शुरू किया। ट्रेन में बैठे ज्यादातर लोग मुस्तैदी से ट्रेन के रुकने का इंतजार कर रहे थे। हम भी लाइन में हो लिए।  मैने और बिट्टू ने ट्रेन से सामान उतारा, और प्लेटफार्म की सीढियों से होते हुए स्टेशन से बाहर निकल आए। दिल्ली में लोकल ट्रेवेल के लिए एक इंडिका  गाड़ी पहले ही तय कर रखी थी, लेकिन ड्राइवर का फोन आया कि जाम बहुत ज्यादा है स्टेशन आने में वक्त लगेगा। मैने उसे स्टेशन आने के बजाय अक्षरधाम मेट्रो स्टेशपर मिलने को कहा। असल में अक्षरधाम मेट्रो स्टेशन हमारे जाने और ड्राइवर के आने वाले रास्ते के बीच में था। ड्राइवर को अक्षरधाम मेट्रो स्टेशन पर मिलने को कह कर, हम लोगों ने दिल्ली स्टेशन पर बेसमेंट में बने मेट्रो स्टेशन का रुख किया। मुझे और पापा को छोड़ कर मम्मी और बिट्टू पहली बार मेट्रो की सवारी कर रहे थे। दोनो ही मेट्रो की भीड़ और वहां की चकाचौध को देखकर थोड़ा घबरा रहे थे। खैर.. टिकट काउंटर से अक्षरधाम के तीन टिकट लिए क्योकि मेरे पास मेट्रो कार्ड था। सिक्योरिटी चेक के बाद हम आगे बढ़े तो प्लेटफार्म में एंट्री के लिए बना कमप्यूट्राइज्ड गेट मम्मी औऱ बिट्टू के लिए एकदम नई चुनौती थी। पापा तो अपना टोकन स्कैन कर के फटाक से गेट के पार हो लिए, इधर मम्मी और बिट्टू थोड़ा असमंजस में थे। मैने दोनो का टोकन स्कैन कर गेट से पार कराया। अब हम स्वचलित सीढियों से होते हुए प्लेटफार्म पर पहुंच चुके थे। थोड़ी ही देर में प्लेटफार्म के एक छोर पर घुप काली गुफा में से चमचमाती मेट्रो प्लेटफार्म पर आ लगी। सेंसर डोर खुला और हम फटाफट अंदर हो लिए। अंदर भीड़ थी लेकिन ऑफिस के वक्त जितनी होती है उससे काफी कम थी। इस बजह से बैठने को सीट मिल गई।
करीब 15 मिनट बाद हम लोग अक्षरधाम मेट्रो स्टेशन पर थे। ट्रेन कुछ ही सेकेंड के लिए रुकती है सो जल्दी से उतर लिए, स्वचलित सीढियों से होते हुए हम अक्षरधाम मेट्रो स्टेशन के बाहर थे। बाहर ही ड्राइवर सफेद इंडिका लिए हमारा इंतजार कर रहा था। गाड़ी में बैठे और ड्राइवर को नोएडा चलने को कहा। इस दौरान नीरज दादा (सबसे बड़े भाई) को फोन लगाया और खुद पता समझने की बजाए फोन ड्राइवर को फोन थमा दिया। करीब तीन मिनट तक नीरज दादा और ड्राइवर ये रोड वो चौराहा जैसी बाते करते रहे। करीब 25 मिनट तक दिल्ली और नोएडा की खिचड़ी टाइप मिलीजुली सड़कों पर दौड़ने के बाद हम नोएडा सिटी सेंटर मेट्रो स्टेशन पर पहुंचे। वहीं नीरज दादा हमारा इंतजार कर रहे थे। मेरी और नीरज दादा की बात हुए कई साल बीत गए थे, कोई झगड़ा नहीं था बस हम पांचों भाई आपस में कम ही बात करते हैं, या यूं कहिए बहुत जरूरी न हो तो बात करते ही नहीं है। अभी तक मैं अगली सीट पर ड्राइवर के बगल बैठा था लेकिन नीरज दादा के आते ही मैं पीछे पाप, मम्मी और बिट्टू के साथ एडजेस्ट हो लिया। अब आगे का रास्ता नीरज दादा को बताना था।

ऐसे रहता है मेरा भाई!
UP16, DL 1S,2C  और इक्का दुक्का दूसरे शहरों के नंबर की गाड़ियां देखते हुए 15 मिनट के बाद हम वहां पहुंचे जहां नीरज दादा किराए का मकान लेकर रह रहे थे।  गाड़ी घर तक नहीं जा सकती थी इस लिए हमें गली के मुहाने पर ही उतरना पड़ा। करीब 60 कदम चलने के बाद बड़े डबल गेट में हमने एंट्री की। गेट के एक ओर एक बुढ़ी औरत खटिया पर बैठी हुक्का गुड़गुड़ा रही थी। वो यहां की मकान मालकिन थी। एक साथ इतने लोग देखकर यकायक पुछ बैठी किसके धौरे जा रहे हो ?” नीरज दादा ने तुरंत उससे बात की। फिर हम आगे बढ़े। मेन गेट से अंदर दाखिल हुए तो देखा करीब पौने एक बीधे की जगह थी, बीचों बीच बड़ी सी खाली जगह और दोनो ओऱ चार मंजिल की एक एक बिल्डिंग और उनमें लाइन से बने करीब 50 कमरे। घर तक आने के लिए ऐसी गली थी कि मारूती 800 भी सही न चल पाए और अंदर इतनी जगह कि 25 ट्रक खड़े हो जाएं। खैर.. गेट से बाईं ओर वाली बिल्डिंग में पहले मंजिल पर रहते थे नीरज दादा, साथ में एक और कोई लड़का भी रहता था। 10 बाइ 12 का एक कमरा और इसी में सीमेंट का एक प्लेटफार्म था जिसमें देसी टाइप स्टील का सिंक जड़ दिया गया था, यानि ये इनका किचन था। इसी कमरे में करीब 3 बाइ 5 का एक कोना निकला था। बाहर से देखा तो ये इनका प्राइवेट टॉयलेट कम बाथरूम कम कपड़े धोने की जगह थी। कमरे ठीक सामने नारियल जूट की एक प्राइवेट रस्सी थी जिस पर ये अपने कपड़े सुखाते थे। चप्पल कमरे के अंदर ही उतारनी होती थी क्योकि बाहर से गायब होने का डर था। कमरे के अंदर दो तख्त पड़े थे। उनमें एक तो पूरी तरह तख्त था लेकिन दूसरा मोडिफाइड था यानि लोहे के चौकोर पाइप फ्रेम पर शटरिंग में इस्तेमाल होने वाली 8 बाइ 4 लाल प्लाई रखी थी। हमने अपना बैग वगैरह रखा और हाथ धोने की इच्छा जताई। बड़े भाई ने तख्त के नीचे रखी डबल साइड वाली हरी साबुन दानी औऱ पेंट की पुरानी बाल्टी, लाल मग देते हुए बाथरूम की ओर जाने का इशारा किया। यानि एक तरह से देखें तो अपने भाई को इस तरह से रहते हुए देख कर मुझे बहुत ही कष्ट हो रहा था। मुझे बड़़ी ग्लानि हो रही थी कि मैं अपने भाई को अपने शहर में एक अदद नौकरी नहीं दिला पा रहा हूं। खैर इस वक्त चिंता कुछ और ही थी। फटाफट तैयार होकर हमें हॉस्पिटल के लिए निकलना था। मै और बिट्टू दोनों ने नहा लेने में ही भलाई समझी क्योकि रातभर ट्रेन के सफर के बाद सिर थोड़ा भारी जो हो जाता है। बाकि लोगों ने हाथ मुंह धोकर ही काम चला लिया, सही भी है हर जगह सबका एडजेस्ट हो जाना संभव नहीं होता। जबतक हम तैयार हो रहे थे बड़े भाई ने चाय बना दी और खाने के लिए कुछ नश्ता तैयार कर दिया। करीब 2 घंटे बाद हम लोग हॉस्पिटल के लिए निकले। नेशनल हार्ट इंस्टिट्यूट जो कि  साउथ दिल्ली में था तकरीबन 1 घंटे के सफर के बाद हम लोग हॉस्पिटल पहुंचे।

कभी न भूलने वाला वक्त
हॉस्पिटल के हालात काफी अलग थे। बड़ा सा रिसेप्शन था, काफी चहल पहल थी। अच्छी बात ये थी कि ये हॉस्पिटल से ज्यादा पांच सितारा होटल लग रहा था। कोई व्हीलचेयर पर था, किसी का ऑपरेशन हो चुका था तो कोई हमारी तरह अभी अभी आया था। देश विदेश तक के मरीज हाथ में कागज का थैला लिए अपने नंबर का इंतजार कर रहे थे।  अस्पताल के रिसेप्शन पर पापा का नाम पहले से ही नोट किया हुआ था। मुझे तुरंत एक पीले रंग की फाइल दी गई जिसे भरने को कहा गया। पापा मम्मी और बिट्टू को रिसेप्शन पर मौजूद सोफे पर बिठाकर मैं वो फार्म भरने लगा। इस फार्म में मरीज की भर्ती और ऑपरेशन से अनेकों बातें थी। मैने फटाफट फार्म भरा और उसके बाद मुझे ऑपरेशन में तय पैकेज के तहत 1 लाख 90 हजार रुपए जमा कराने को कहा गया। जो कि मैने कागजी कार्रवाई के बाद तुरंत ही जमा करा दिए। पैसों की रसीद जैसे ही  रिसेप्शन पर दिखाई तुरंत ही पापा को भर्ती कर लिया गया।

सारी कार्रवाई होने के बाद पापा को तीसरी मंजिल पर बने एक स्पेशल वार्ड में भेज दिया गया। मैं भी पापा के साथ उस वार्ड तक गया। अंदर जाते ही पापा को 7 नंबर बेड दिया गया। पापा को एक आसमानी रंग की शर्ट और पजामा नुमा कपड़े दिए गए। वार्ड में मौजूद सभी मरीजों ने वैसी ही ड्रेस पहन रखी थी। वार्ड ब्वाय ने पापा को कपड़े बदलने को कहा। मैने वार्ड ब्वाय से पूछा कहां चेंज करें ? उसने रुकने का इशारा किया और बेड के तीन ओर एक पर्दे जैसा फ्रेम लगा दिया। ये बन गया चेंजिंग रूम। अब पापा ने अपने कपड़े बदल लिए और शामिल हो गए वार्ड में मौजूद बाकि लोगों की जमात में। मैने पापा के कपड़े बैग में रख लिए। मैं वहां खड़ा ही था कि वार्ड ब्वाय ने मुझे जाने का इशारा किया। मैने कहा कोई जरूरत पड़ी तो ? वार्ड ब्वाय बोला तो आपको बुला लेंगे
मैं वार्ड से निकल कर नीचे रिसेप्शन पर चला आया। रिसेप्शन पर मम्मी और बिट्टू मुझे देखते ही उठ खड़े हुए। मैने उनको बिठाया और खुद भी वहीं रिसेप्शन पर बैठ गया। बैठे हुए करीब दस मिनट ही हुए होंगे कि रिसेप्शन पर वार्ड से फोन आया और मुझे बुलाया गया। लिफ्ट लगी थी फिर भी मैं सीढ़ियां नापते हुए अगले एक मिनट से भी कम वक्त में तीसरी मंजिल पर था। पापा के पास खड़े एक डॉक्टर ने मुझे सारी जानकारियां दीं। बोला हम लोग कल(08/04/2015 बुधवार) इनका ऑपरेशन करेंगे, सुबह 7 सात बजे इनको OT (ऑपरेशन थियेटर) ले जाया जाएगा, ऑपरेशन के दौरान हमें करीब 6 युनिट खून की जरूरत पड़ेगी इसमें 4 युनिट तो कोई भी ग्रुप चलेगा लेकिन 2 युनिट वार्म ब्लड चाहिए यानि जो खून मरीज का है वही। क्योकि ऑपरेशन के दौरान काफी खून निकल जाता है उसकी भरपाई के लिए। तो फिलहाल आप ब्लड की व्यवस्था जरूर कर लीजिए इतना बताकर कुछ और कागजात थे जिनपर मुझसे साइन कराया गया। करीब 15 मिनट के बाद मैं फिर वापस रिसेप्शन पर आया। सबने मुझे उम्मीद भरी नजर से देखा मैने भी सारी बात बताई जो कि मुझे डॉक्टर ने बताई थी। अब सबसे बड़ी जरूरत भी ब्लड की। मेरा और पापा का ब्लड ग्रुप एक ही था। तो वार्म ब्लड की एक युनिट तो मैं ही था जरूरत थी एक और युनिट की। खैर थोड़ा वक्त बढ़ा औऱ मेरे दोस्तों ने आना शुरू किया। जिनमें अखिलेश साहू (मेरे स्पोर्टस कॉलेज के वक्त का दोस्त) विरेश रॉव और निशांत तिवारी (दोनों ने साथ में पत्रकारिता की थी) और एक नीरज दादा का मित्र (नाम भूल गया)। यानि 4 युनिट की जरूरत तो पूरी हो चुकी थी। और इत्तेफाक की बात देखिए सभी का ब्लड ग्रुप O+ था, जो कि अमूमन खोजने से भी नहीं मिलता है। अब जरूरत थी तो 2 युनिट B+ ग्रुप की जिनमें से एक तो मैं ही था यानि बचा एक। रीना को फोन किया तो पता चला उसके चचेरे भाई का भी ब्लड ग्रुप B+ है। एक और एत्तेफाक उसका नाम भी दीपक है। बातचीत हुई और सब मामला फिट हो गया यानि ऑपरेशन के वक्त वार्म ब्लड का इंतजाम पक्का हो गया था। फिर भी सेफ साइड अस्पताल में पहचान निकाल ली और ये पक्का कर लिया की अगर उसके बाद भी ब्लड की जरूरत पड़ी तो अस्पताल के ब्लड बैंक से मिल जाएगा। दिन बीतने को था। मम्मी, बिट्टू और नीरज दादा को घर भेजने में ही भलाई समझी हालाकि कोई जाने को तैयार नहीं था लेकिन आखिरकार मान गए। घड़ी की सुईयां औऱ रात दोनों ही अपनी रफ्तार बढ़ा रही थीं। खाना नहीं खाया था मन भी नही हो रहा था। लेकिन रात भर रुकना था औऱ कहीं मुझे कमजोरी हुई या ऐसे में मेरी तबियत बिगड़ी तो मामला गड़बड़ हो सकता था। मैने अस्पताल के रिसेप्शन पर सूचना दी और खाना खाने के लिए निकल गया। करीब आधे घंटे बाद खाना पीना खाकर मैं वापस अस्पताल में था। पता किया कोई फोन नहीं आया और नाही मुझे बुलाया गया। बढ़ रही थी सब लोग सोने के लिए अपनी अपनी जगह पक्की कर रहे थे। रिसेप्शन पर लगे सोफे अब तीमारदारों के बिछौने थे। सबने एक एक सोफा कब्जा कर लिया और मैने भी। रात के साथ सर्दी भी बढ़ती जा रही थी। हालाकि ये अप्रैल का महीना था लेकिन अंदर मौसम दिसंबर जैसा था, सेंट्रलाइज AC जो लगा था। जो जानते थे वो तो तैयारी से थे, लेकिन मेरे पास तन पर मौजूद कपड़ो के अलावा कुछ भी नहीं था, सिवाए एक बैग के, वो भी इसलिए क्योकि उसमें कागज और पैसे थे। रातभर चार फिट की सोफे पर पैर मोड़े एक करवट पर सोने की कोशिश करते रहे। जब ठंड बर्दाश्त के बाहर हो जाती तो रिसेप्शन से बाहर निकल जाते। बाहर गर्मी थी जो कि राहत दे रही थी लेकिन उस राहत पर मच्छरों का आक्रमण भी था। सो बड़ी विकट स्थिती थी। अंदर AC  की सर्दी औऱ बाहर मच्छर महाराज का डंक, किसी तरह से रात गुजरी जो कि हमेशा याद रहेगी।

आज ऑपरेशन है
ये 8 अप्रैल की सुबह थी और दिन था बुधवार। मम्मी और बिट्टू को मैने जल्दी आने को कहा था, क्योकि सुबह ही पाप को ऑपरेशन के लिए ले जाया जाना था। ठीक पौने सात बजे रिसेप्शन पर फोन आया और मुझे बुलाया गया। ये ऑपरेशन से पहले की मुलाकात थी। मुझसे एक पेपर पर साइन करवाया गया जिसमें लिखा था ऑपरेशन के दौरान अगर कोई हादसा हो जाता है तो उसमें हॉस्पिटल की जिम्मेदारी नहीं होगी। उस पेपर पर साइन करने का मन तो नहीं था, लेकिन फिर भी करना था, मजबूरी थी। मैने साइन कर दिए। फिर पापा के पास गया। पापा दोनों बाजुएं बांधे पालथी मारे शांत मुद्रा में बैठे थे। न चाहकर भी मैने हल्की मुस्कुराहट के साथ पापा से पूछापापा घबराहट तो नहीं हो रही है पापा निश्चिंत होकर बेफक्री के साथ बोले अबे घबराना किस लिए, हमको घबराहट वबराहट नहीं होती मैं पापा की हिम्मत बढ़ाना चाह रहा था उन्होने मेरी हिम्मत बढ़ा दी। आगे बोले जाओ बैठो आराम से सब ठीक हैमैने भी भगवान से यही दुआ की सब ठीक हो जाए। आज जितना सहमा औऱ डरा हुआ सा था ऐसी घबराहट इससे पहले कभी नहीं हुई थी मुझे। सीने पर एक अजीब सा भार था जो कि बढ़ता ही जा रहा था। लंबी सांसे लेकर मैं खुद को नियंत्रित करने का प्रयास कर रहा था। वार्ड से निकल कर नीचे रिसेप्शन की ओर चला। तीसरे मंजिल तक जिन सीढियों को मैं कुछ ही सेकेंड में चढ़ जा रहा था, उससे उतरने में मुझे कई मिनट लग गए। नीचे रिसेप्शन पर देखा तो बिट्टू, मम्मी और नीरज दादा आ चुके थे, सोफे पर बैठे थे। मुझे देखते ही उठ खड़े हुए। मैने प्रयास किया कि पापा से मम्मी की मुलाकात हो जाए लेकिन जब तक उनको OT  में ले जाया जा चुका था। अब हमें उन 4 से 5 घंटों का इंतजार करना था जो ऑपरेशन में लगने वाले थे। हालाकि ये हमारा अनुमान था वक्त और ज्यादा भी लग सकता था। इस बीच हम सब शांत और अलग थलग थे। कोई बाहर अस्पताल में बने छोटे से गार्डन में बैठता, तो कोई रिसेप्शन पर, कोई टहल रहा था। हम अकेले नहीं थे जिनका मरीज ऑपरेशन थियेटर में जिंदगी और मौत से जूझ रहा था। मेरी तरह कई लोग थे, बारी बारी से जिनके मरीज का ऑपरेशन था। किसी का हो चुका था तो कोई इंतजार में था। इस बीच हॉस्पिटल के कैंपस में कोई सुंदरकाण्ड पढ़ रहा था, तो कोई चालिसा जाप कर रहा था, कुछ एक नमाज पढ़ते दुआ करते भी नजर आ रहे थे। लोगों के धर्म जरूर अलग थे लेकिन परेशानी सबकी एक सी थी। बस खुशी और राहत एक बात की थी कि एक के बाद एक हर ऑपरेशन सफल हो रहा था। हम भी इसी सफल खबर का इंतजार कर रहे थे। इस बीच रीना अपने पापा और कुछ रिश्तेदारों के साथ हॉस्पिटल आ गई थी। साथ ही रीना का भाई दीपक भी आ पहुंचा था, क्योकि मेरे साथ ही उसे भी पापा को वार्म ब्लड दो देना था। सुबह के 11 बजे होंगे रिसेप्शन पर ब्लड बैंक से फोन आया। मुझे ब्लड बैंक में बुलाया गया। मैं समझ गया था कि ये बुलावा ब्लड के लिए है। मैने रीना के भाई दीपक को भी साथ ले लिया। ब्लड बैंक में हमारा नाम पूछा गया, और अनामिका उंगली में सुई चुभो कर ब्लड सैंपल लिया गया। ताकि ये साफ हो जाए कि मरीज को जिस ब्लड की जरूरत है ये वही है कि नहीं। खून की बूंदों को शीशे के कुछ टुकड़ों पर गिराया गया, फिर उन पर कई तरह के रसायन डाले गए। नर्स ने तुरंत ही हमारे ब्लड ग्रुप को जान लिया और हमें दूसरे रूम में जाने को कहा। हम आगे बढ़कर कमरे में दाखिल हुए। यहां दो बेड पड़े थे, अब इसे बेड कहें, सोफा कहें, आराम कुर्सियां कहें ये तो नहीं पता लेकिन रक्त दान करने वाला हर शख्स इसी पर लेटता था। हमें भी उस पर लेटने का इशारा किया गया। अगल बगल लगे उन सोफों पर हम दोनो दीपक लेट गए। एक शख्स जो कि वहां पहले से मौजूद था उसने पहले मेरे दाएं हाथ पर कोहनी के विपरीत हिस्से को किसी कैमिकल से साफ किया। पूरी तरह से सील्ड पैकट जिसमें एक पाइप लगा था और उसे एक सुई के जरिए जोड़ा गया, और अब वो सुई मेरे हाथों में चुभो दी गई। धाराप्रवाह रक्त उस थैली को भरने लगा। फिर थैली एक छोटे इलेक्ट्रॉनिक तराजू नुमा मशीन पर रख दी गई जो कि लगातार हिल रही थी। मेरे बाद इस क्रिया को दोहराया गया दूसरे दीपक के ऊपर। करीब 10 मिनट के बाद थैली पूरी तरह से भर चुकी थी। फटाफट हमारे हाथों से सुई को निकाला गया और रक्त से भरी थैली को पूरी तरह से सील कर दिया गया। हमें कुछ देर तक लेटने को कहा गया उसके बाद हमें एक 200 मिली ग्राम का जूस का पैकेट और साथ ही एक बिस्किट का पैकेट दिया गया। करीब 10 मिनट तक वहां बैठने के बाद हम वापस नीचे आ गए। नीचे रीना, मम्मी, बिट्टू, नीरज दादा समेत कई लोग थे जो शांतचित बैठे मन ही मन सब अच्छे से निपट जाने की कामना कर रहे थे। मैने सबसे खाने पीने के लिए पूछा लेकिन कहीं से कोई माकूल जवाब नहीं आया। आ भी कैसे सकता है। ऐसे में भूख प्यास कहां लगती है लेकिन मुझे तो लगती है। मैने हल्का खाना खाया और सबके लिए चाय बिस्किट का इंतजाम किया। दोपहर के ढाई बज चुके थे खबर मिली पापा का ऑपरेशन हो चुका है औऱ वो वार्ड में लाए जा चुके हैं।
मुझे एक बार फिर ब्रीफिंग के लिए बुलाया गया। सीढ़ियों को लांघते हुए फटाफट ऊपर वार्ड में दाखिल हुआ। वार्ड में घुसते ही ठीक सामने वाले बेड पर पापा लेटे हुए थे। सीने पर बड़ा सा चीरा लगा था जिसे सफेद पट्टियों से ढंका गया था। पंजों से लेकर जांघ तक एक और चीरा लगाया गया था। सांस लेने के लिए मुंह में सफेद पाइप लगाया गया था जो एक मशीन से जुड़़ा था। ये मशीन ही पापा के फेफड़ों में ऑक्सीजन दे रही थी। पापा पूरी तरह से बेहोशी की हालत में थे। मैं शांत एकटक ये सब देख ही रहा था कि अचानक डॉक्टर ने कमरे में छाई खामोशी को तोड़ा। आप ही हैं उमाशंकर के साथ?  डॉक्टर ने कहा। आवाज तो नहीं निकल पाई मेरे मुंह से लेकिन लंबी सांस छोड़ते हुए मैने हामीं में सिर हिला दिया। फिर डॉक्टर ने कहा। मैं उसी टीम का हिस्सा हूं जिसने इनका ऑपरेशन किया है, इनको 90 प्रतिशत से ज्यादा ब्लॉकेज थी, चार बाई पास सर्जरी की गई हैं, फिलहाल ये बेहोश हैं, अमूमन 7 से 10 घंटे में इनको होश आ जाना चाहिए। डॉक्टर से कुछ भी पूछने लायक बुद्धिमत्ता नहीं थी मुझमें, लेकिन पैर में लगे लंबे चीरे को मैं समझ नहीं पा रहा था इसलिए डॉक्टर से पूछ बैठा, डॉक्टर ने मुस्कुराते हुए कहा बाई पास सर्जरी में जो नसें हम लगाते हैं वो मरीज के शरीर से ही निकाली जाती हैं, तो इनके पैर में और कुछ नहीं है बस यहां से नस निकाली गई है जो कि हार्ट में लगा  दी गई हैं, होश आने का इंतजार करिए बाकी सब ठीक हैडॉक्टर का इतना कहना मेरे लिए काफी राहत भरा था।
पापा को देख कर मैं नीचे रिसेप्शन की ओर बढ़ा। नीचे सब मेरा बेसब्री से इंतजार कर रहे थे जो ये सुनने को बेताब थे कि कैसी है पापा की हालत। मैं ज्यादा कुछ तो नहीं कह सका लेकिन मेरे मुंह से इतना ही निकला कि सब ठीक है। ये जानकर सब खुश थे कि ऑपरेशन सफल हुआ, अब बस पापा को होश आने का इंतजार था, जिसमें कई घंटे लगने थे। देखते ही देखते दिन ढलने को हो गया। मैने रीना के पापा और दूसरे रिश्तेदारों को जाने को कहा, ना नुकुर करते हुए आखिर उनको विदा कर दिया। रीना रुक गई शायद मेरा अकेलापन भांप गई थी। वक्त बढ़ रहा था तो मम्मी औऱ छोटे भाई को भी नीरज दादा के साथ भेज दिया।

ये रात कब खत्म होगी?
शाम के सात बज चुके थे। पापा को अभी तक होश नहीं आया था। मैं और रीना एक रिसेप्शन पर बैठे वार्ड से बुलावे का इंतजार कर रहे थे। काफी देर तक जब रहा नहीं गया तो मैं खुद वार्ड में पहुंच गया। हालाकि कदम कदम पर सिक्योरिटी गार्ड थे जो कि बिना इजाजत अस्पताल में कहीं आने जाने नहीं देते थे, लेकिन मैं फिर भी पहुंच गया। ऑक्सीजन पाइप के अलावा और भी कई मशीनों के तार पापा के शरीर से जुड़े हुए थे। बंद आंखें और बार बार लंबी सांस भर रहे थे। मैने देख ही रहा था कि गार्ड ने वार्ड से जाने को कहा। मै भी उसकी बात मानते हुए वार्ड से बाहर आ गया।
वक्त लगातार बढ़ रहा था, रात के नौ बज चुके थे। मैने रीना से खाने के लिए पूछा लेकिन रीना ने कोई माकूल जवाब नहीं दिया। खैर.. मुझे ही समझना था। हॉस्पिटल की पीछे वाली मार्केट में  एक नया रेस्टोरेंट खुला था। होटल मैनेजमेंट किए हुए दो लड़कों ने खोला था। हर ग्राहक को भगवान समझ रहे थे, बड़ी शालीनता से बात करते, आर्डर लेते, टिशू पेपर से लेकर दांत साफ करने वाली सींक तक खाने के पार्सल में दी जा रही थी।  मैने दो वेज थाली आर्डर कीं। कुछ 10 मिनट के इंतजार के बाद खाना मेरे हाथ में था। अगले 5 मिनट बाद मैं हॉस्पिटल लौट आया।
हॉस्पिटल में एंट्री करते ही रीना ने कहा आपके लिए वार्ड से फोन आया था जल्दी देखिए क्या बात है। मैने खाने का पैकेट रीना को थमाया और वार्ड की ओर दौड़ पड़ा। ऊपर देखा तो पापा को होश आ चुका था। औरों के मुकाबले पापा जल्दी सचेत हो गए थे। ये खुशी की बात थी, लेकिन पूरी तरह से बोल चाल वाली हालत आने में अभी रातभर का वक्त था। मन खुश तो बहुत हुआ, अब ये खुशी रीना को भी सुना दी जाए। मन ही मन  पापा को गेट वेल सून कह कर वापस रिसेप्शन पर लौट आया। रीना को बताया तो वो भी खुश हो गई। इसी बीच खाने की याद आई, दोनों ने खाना खाया, भले रेस्टोरेंट नया था लेकिन खाना काफी जायकेदार था और ज्यादा भी था दो लोगों के खाने को आराम से तीन लोग खा सकते थे। कोशिश की खत्म करने लेकिन फिर भी बच ही गया। यहां फिलहाल और तो कोई काम था नहीं बस ध्यान रखना होता था कि कब वार्ड से बुलावा आ जाए। रात बढ़ रही थी। रिसेप्शन पर पड़े सोफों पर लोगों ने कब्जा जमाना शुरू कर दिया था। हालाकि हम पहले ही एक सोफे पर काबिज थे सो चिंता नहीं थी। आज अस्पताल में मेरा दूसरा दिन था और पहले दिन गुजरी रात मुझे बखूबी याद थी। मम्मी से पहले ही मैने चादर और अपनी एक जैकेट मंगा ली थी। रीना ने चादर ओढ़ ली और मैने अपनी जैकट पहन ली, अब टेंशन की कोई बात नहीं थी। हम जहां बैठे वहां हमारे ठीक बगल में एक पहाड़ी परिवार बैठा था। एक आंटी औऱ उनकी दो बेटियां। रीना और आंटी के बीच पहले बातचीत फिर दोस्ती हो चुकी थी। इसी बात में कब रात बीत गई पता ही नहीं चला। बीच में एक आध झपकी भी मार ली थी मैने।
 दिन बदल चुका था तारीख 9 अप्रैल हो गई थी। सुबह के 7 बज गए जिसका कि मैं इंतजार कर रहा था। क्योकि सुबह सात बजे सभी तीमारदारों को आधे घंटे के लिए मरीजों से मिलने दिया जाता था। इस वक्त कोई रोक टोक नहीं होती थी। सात बजते ही मैं पापा के वार्ड में पहुंच गया। वार्ड में बेड तो 8 थे लेकिन मरीज 6 ही थे औऱ साथ ही उनके तीमारदार मरीजों का हाल चाल ले रहे थे।  मुंह से ऑक्सीजन का पाइप निकाल दिया गया था। ज्यादातर मशीनों के तार भी हटा दिए गए थे, कुछ एक लगे थे जो कि शायद बहुत ही जरूरी रहे होंगे। छाती और दाहिने पैर में लगे ऑपरेशन के टांकों से दर्द कुछ ज्यादा था, तभी थोड़ा सा भी हिलने पर कराह उठते थे। लेकिन चेहरे पर ऑपरेशन के दर्द का असर बिल्कुल भी नहीं था। करीब दस मिनट तक पापा का हाल चाल लिया और फिर वापस रिसेप्शन के वेटिंग एरिया में आ गया। मम्मी और बिट्टू आ चुके थे, मम्मी ने भी पापा से मिलने की इच्छा जताई। मिलने का वक्त अभी बाकी था तो मम्मी को मैं वार्ड में छोड़ आया, कुछ ही देर में मम्मी वापस आ गईं। मम्मी के चेहरे पर पापा के दर्द का अहसास साफ देखा जा सकता था। रीना का भाई आया था तो रीना दोपहर में अपने घर को चली गई। हॉस्पिटल में मेरा तीसरा दिन था तो बिट्टू ने खुद रात में रुकने और मुझे मम्मी के साथ जाने को कहा। थकान थी तो मैने जाना ठीक ही समझा। खैर.. इस तरह से 9 अप्रैल का दिन भी बीत गया।
अगले दिन यानि 10 अप्रैल को पापा की हॉस्पिटल से छुट्टी होनी थी। इस लिए हम तैयारी के साथ गए थे। करीब 9 बजे मैं मम्मी और नीरज दादा हॉस्पिटल पहुंच गए थे। थोड़ी देर में वार्ड में हमें बुलाया गया। मैं गया तो मुझे एक फाइल दी गई जिसमें पूरे बिल के अलावा करीब 2500 रुपए और जमा करने थे। हॉस्पिटल के चीफ फाइनेंस अधिकारी से पहचान निकल आई थी तो ये बिल उनको दिखाया। खैर.. 2500 रुपए माफ कर दिए गए और डिस्चार्ज की कागजात तैयार कर दिए गए। डॉक्टर ने मुझे बुलाकर दवाइयों, रखरखाव के बारे में समझाया और साथ ही एक हफ्ते के बाद डॉक्टर साहब से मिलने के लिए बुलाया। ये बड़ी समस्या थी। अगले हफ्ते आने के लिए एक हफ्ते तक दिल्ली में रुकना था। कहने को मेरे अनेको दोस्त थे दिल्ली में नीरज दादा भी ही रहते थे। और तो और मेरी ससुराल भी तो दिल्ली में ही थी। दोस्तों और नीरज दादा के वहां रुकने का कोई सवाल नहीं उठता था इनका रहन सहन बंजारों से कुछ नहीं था और साथ ही पापा के टांके ताजे थे। ससुराल में रुकने का मेरा मन नहीं था। अब जो विकल्प बचा था वो था कोई साफ सुथरा होटल लेकर रह लेते, लेकिन यहां भी खाने पीने का इंतजाम कैसे करते, बाजार के खाने से भगवान ही बचाए। मैं ये सोच ही रहा था कि तब तक रीना के पापा का फोन आ गया। हाल चाल के अदान प्रदान के बाद फिर उन्होने घर आने के जिद की। मैने कई बार मना किया लेकिन इसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं था। गाड़ी बुला ही चुके थे तो ऐसे में कहीं भटकने के बजाए रीना के घर जाना ही ठीक समझा।

ससुराल बना आसरा
डिस्चार्ज की कागजी कार्रवाई हो ही चुकी थी, दवा वगैरह लेकर हम लोगों ने (मैं, मम्मी, बिट्टू और पापा) रीना के घर पर एक हफ्ता बिताने का मन बनाया। हॉस्पिटल से निकलने के करीब डेढ़ घंटे बाद हम लोग मुख्य दिल्ली से करीब 30 किलोमीटर दूर नरेला यानि अपनी ससुराल में थे। गाड़ी रुकते ही रीना के पापा और दोनो भाई आलोक और निखिल आ गए, गाड़ी से सामान वगैरह निकाला गया। मैने रीना के पापा से पुछा हम लोग कहां रुकेंगे, तो उन्होने अपने फ्लैट के सामने वाले फ्लैट में रुकने की बात कही। दिक्कत रुकने की नहीं थी दिक्कत फ्लैट तक पहुंचने की थी। क्योकि इनका फ्लैट तीसरी मंजिल पर था। यानि हम जहां रुकने वाले थे वो फ्लैट भी तीसरे फ्लोर पर ही था। हम लोगों को क्या हम तो चढ़ जाते लेकिन पापा कैसे जाते। डीडीए के इन एमआईजी फ्लैट्स में लिफ्ट भी तो नहीं थी। कहते हैं न हिम्मते मर्दा तो मददे खुदा। रीना के पापा ने पहले ही इंतजाम कर रखा था हमें तो बस हिम्मत दिखानी थी। प्लास्टिक की एक कुर्सी मंगाई गई और उस पर पापा को बिठाया गया। एक ओर से मैने पकड़ा और दूसरी ओर से रीना के भाई ने, बचा कुर्सी के पीछे का हिस्सा तो उस पर रीना के पापा जम गए। और फिर एक.. दो.. तीन.. जैसे ही पापा को उठाया तो उनका वजन कुछ खास नहीं लगा। हालाकि वास्तव में 65-70 किलो तो पापा का वजन जरूर होगा। हर मंजिल पर थोड़ा सुस्ताते हुए आखिर तीसरी मंजिल तक पहुंच ही गए जहां पापा और हमें रुकना था। दो खटिया और और एक तख्त बाकायदा बिछौने के साथ तैयार था। पापा मम्मी और बिट्टू को वहीं छोड़ कर मैं गुड़गांव निकल गया। मैने वहां अपने दोस्तों के साथ रुकना चाह रहा था। लेकिन एक ही दिन रुक पाया। बिट्टू अपने ऑफिस से छुट्टी लेकर आया था जो की खत्म होने को थी और उसका कुछ खास काम भी नहीं था। पड़ोस में रहने वाले टीटीई भोंदू भईया ट्रेन लेकर दिल्ली आए थे। 12 अप्रैल को उनकी वापसी थी। शाम 7 बजे वाली ट्रेन लेकर जा रहे थे। बिट्टू की बात भोंदू भईया से हो चुकी थी। मुझे बिट्टू को स्टेशन तक छोड़ना था। बिट्टू को शहर का ज्यादा अंदाजा नहीं था इसलिए मैं खुद ही बिट्टू को स्टेशन तक छोड़ने गया। बिट्टू ने भोंदू भईया को दुबारा फोन मिलाकर स्टेशन आने की बात कही तो उन्होने एक सीट नंबर बताया। उनके बताई सीट पर मैने बिट्टू को बिठा दिया। थोड़ी ही देर में ट्रेन चल पड़ी और मैं वापस पापा के पास आ गया। पूरे एक हफ्ते तक मैं मम्मी और पापा रीना के घर पर रहे। बड़ी सेवा की रीना के परिवार ने हमारी। सुबह की चाय से लेकर रात के खाने तक किसी चीज की कमी नहीं महसूस होने दी।

अंत भला तो सब भला
18 अप्रैल शनिवार। इसी दिन हमें वापस नेशनल हार्ट इंस्टिट्यूट में डॉक्टर को दिखाना था। डॉक्टर को टाकों की जांच करनी थी और सुधरते स्वास्थ का विश्लेषण करना था। मुझे यकीन था अब और दिल्ली में नहीं रुकना पड़ेगा, इसलिए लखनऊ वापसी का टिकट करा लिया था, लेकिन टिकट कनफर्म नहीं था। सुबह तैयार हुए। सारा सामान पैक किया। रीना को भी साथ चलना था इसलिए वो भी पूरी तैयारी से थी। सुबह 11 बजे डॉक्टस साहब से अपॉइंटमेंट था इसलिए हम जल्दी ही निकल लिए, क्योकि रोड पर अच्छा खासा ट्राफिक मिलने की संभावना थी। करीब डेढ़ घंटे के बाद हम हॉस्पिटल पहुंच गए थे। हमने सोचा लाइन लंबी होगी वक्त लगेगा लेकिन कुछ ही देर में नंबर आ गया। आज डॉक्टर ओपी यादव नहीं थे कोई औऱ डॉक्टर ओपीडी देख रहे थे। हमारा नंबर आया डॉक्टर ने हाल चाल लिया। छाती और पैर के टांकों को निरीक्षण किया। सेहत का सुधार वक्त के साथ बिल्कुल सही था। डॉक्टर की नजर पैर में लगे के टांके पर पड़ी। बोले.. अरे ये कैसे छूट गया। खैर कोई बात नहीं ऊपर वार्ड में जाईए और इसे कटवा लीजिए बाकि सब ठीक है। डॉक्टर ने कुछ दवाईयां लिखीं और वापस घर जाने को कहा। मैने पूछा डॉक्टर साहब अब कब आना पड़ेगा। डॉक्टर बोले.. कोई जरूरत नही है आने की, दवाईयां लिखी हैं उनको खाते रहिए और कोई समस्या होतो पास के किसी हार्ट स्पेश्लिस्ट को दिखा दीजिएगा। अपको पूरी तरह से फिट होने में करीब 3 महीने लगेंगे। डॉक्टर के केबिन से निकल कर हम वार्ड में गए। पैर में लगा एक पक्का टांका कटवाया और वापस आ गए। अब कोई काम नहीं था बस वापस लखनऊ जाना था। यानि ट्रेन का इंतजार करना था जो कि शाम को 7 बजे थी और टिकट कनफर्म नहीं था। हालाकि मेरा एक दोस्त जो कि दिल्ली स्टेशन पर था उसको एक दिन पहले ही टिकट कनफर्म कराने का आग्रह किया था। उसने हो जाने का वादा भी किया था। हम दोपहर के एक बजे फ्री हो गए थे। ट्रेन शाम की थी इसलिए इधर उधर भागने की बजाय हॉस्पिटल के वेटिंग रूम में ही वक्त बिताने निर्णय किया। वेटिंग रूम में कब नींद आ गई पता ही नहीं चला। मैं ही नहीं मम्मी पापा और रीना ने भी नींद पूरी कर ही ली। करीब साढ़े चार बजे आंख खुली तो चाय लेकर आया और मुंह हाथ धोकर चलने को तैयार हो गए। टिकट अभी भी कनफर्म नहीं हुआ था। मैने सोचा नहीं होगा तो एक बड़ी कार कर लेंगे और उसी से लखनऊ चले चलेंगे। इस पर पापा नराज हो गए। बोले.. नहीं, कोई गाड़ी वाड़ी से नही जाना अगर टिकट पक्का होता है तो ठीक नहीं तो कहीं रुक जाएंगे और टिकट पक्का हो जाने के बाद ही जाएंगे। पापा का गुस्सा लाजमीं भी था। अभी एक हफ्ते पहले ही तो हुआ था ऑपरेशन और ऐसे में हमारी देश की सड़कों की उठापटक, मेरा ये निर्णय वाकई गलत था। मैने कहा अच्छा ठीक है स्टेशन चलते हैं। चार्ट बनने तक अगर टिकट कनफर्म हो गया तो चल चलेंगे नहीं तो टीटीई से बात करेंगे शायद कोई जुगाड़ बन जाए, और कुछ नहीं हुआ तो वापस रीना के घर चल चलेंगे। भौवे चढ़ाए हुए पापा ने सिर्फ सिर हिलाकर हामीं भर दी। हम स्टेशन से निकले करीब 20 मिनट तक चलने के बाद मेरे फोन पर एक मैसेज आया। ये मैसेज रेलवे की ओऱ से था। हमारा कोटा लग चुका था और दो सीटें कनफर्म हो चुकीं थीं। मैने पापा को बताया खैर पापा ने कोई जवाब नहीं दिया। इतना बड़ा ऑपरेशन और घर से दूर रहने के बाद तनाव तो हो ही जाता है। ऐसे में उनके शरीर में होने वाले दर्द को वो ही तो महसूस कर रहे थे हम नहीं। ऊपर से ये गाड़ी वो गाड़ी इधर जाओ उधर जाओ गुस्सा तो आना ही था। ऐसे में मम्मी या मुझे एक आध झाड़ मिल जाना कोई ताज्जुब की बात नहीं थी। हम स्टेशन पहुंचे, गाड़ी वाले को उसका हिसाब किताब देकर विदा किया। निर्धारित प्लेटफार्म पर पहुंचे, गाड़ी लग चुकी थी। अपनी बोगी में लगेज लगाया, दोनों सीटों पर चादर बिछाई और पापा को आराम करने को कहा। दो ही सीटें कनफर्म थीं तो एक पापा मम्मी को दे दी और एक पर मैं औऱ रीना हो लिए। थोड़ी देर बाद अपने निर्धारित समय से करीब 10 मिनट बाद ट्रेन ने स्टेशन छोड़ दिया। करीब आधे घंटे बाद टीटीई आया टिकट चेक करने के बाद उसने खुशखबरी सुनाई। बोला आपकी दो और सीटें कनफर्म हो गई हैं। इस वक्त ये खबर वाकई बहुत राहत देने वाली थी। अब हम सब अलग अलग सीटों पर आराम से थे। रात बढ़ी और थोड़ी भूख भी। मैने रीना से खाने के लिए पूछा, उसे भी भूख लग रही थी। पापा ने तो कुछ भी खाने से मना कर दिया, मम्मी को हल्की भूख लग रही थी। कुछ खाना रीना घर से लेकर आई थी कुछ हमने ट्रेन में फेरी वालों से ले लिया। खाने पीने के बीच गाजियाबाद निकल चुका था। पापा और मम्मी अपनी सीटों पर लेट गए और थोड़ी ही देर में सो गए। मैं और रीना काफी देर तक बात करते रहे और फिर हमें भी नींद ने अपनी गिरफ्त में ले लिया। ट्रेन अपनी अंदाज में आगे बढ़ती जा रही थी। कई बार बज चुकी फोन की रिंग ने मेरी आंख खोली। ऊंघते हुए मैने फोन रिसीव किया। दूसरी ओर नरेश मामा थे। बोले कहां पहुंची है ट्रेन। मैने कहा मामा कुछ दिख नहीं रहा है पता करके बताता हूं। पूछताछ की तो पता चला मलिहाबाद पार कर चुके हैं यानि अभी आधा घंटा और लगना था। मामा को वापस फोन मिलाया और बताया। मामा बोले.. ठीक है आराम से आओ हम स्टेशन पर हैं। मामा गाड़ी लेकर आए थे हम लोगों को रिसीव करने के लिए। पापा और मम्मी पहले ही जग चुके थे। मैने रीना को जगाया और समान निकालना शुरू किया। थोड़ी देर बाद हम लखनऊ स्टेशन पर थे। सामान उतारा कदम बढ़ाते हुए स्टेशन से बाहर निकले। बाहर मामा अपनी महिंद्रा बोलेरो लिए हमारा इंतजार कर रहे थे। पापा- मम्मी और रीना को पिछली सीटों पर बिठाया। मैं खुद मामा के बगल में आगे की सीट पर बैठ गया। मामा ने सेल्फ लगाया, पहला गियर डाला और क्लच छोड़ते हुए एक्सिलेटर पर तलवे कसने लगे। सुबह की ताजी हवाओं के साथ हम घर की ओऱ बढ़ने लगे। 19 अप्रैल 2015 की ये सुबह बहुत ही हसीन लग रही थी। लग रहा था जैसे कोई युद्ध जीत कर आए हों। युद्ध ही तो था। अगर किसी बच्चे को खरोच भी आ जाए तो बाप उसके अपना कलेजा निकाल कर रख देता है। पता नहीं बचपन में मैं कितनी बार बिमार पड़ा या चोट खाया। मेरी हर जरूरत को मेरे मां बाप ने पूरी करने की कोशिश की। अपनी हैसियत से ज्यादा किया हम पांचों भाईयों के लिए। आज जहां कई बच्चे मिल कर एक मां बाप का खर्च नहीं सम्भाल पाते हैं। वहीं मेरे मां बाप ने हम पांच भाईयों को पाला। वो पहनाया जो हमने पहनना चाहा, वो खिलाया जो हमने खाना चाहा, हमारी फरमाईश पूरी करने के लिए अपनी इच्छाएं मार दीं। टीन के शेड से लेकर पक्की छत तक अपने मां बाप को कभी कमजोर महसूस नहीं किया। लेकिन कम्बख्त सिगरेट खुद तो धुंआ बनकर ऊपर उड़ गई और पापा को दिल की बिमारी दे गई। लेकिन आज सबकुछ ठीक है... ये दिन मेरी जिंदगी के लिए कितना अहम है बताने के लिए एक भी लफ्ज नहीं है मेरे पास.. मां बाप एक ऐसी ताकत हैं जिनके आगे भगवान भी नतमस्तक है।

दीपक यादव

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