बुधवार, 8 जनवरी 2014

वाह री खबर...


वाह री खबर...

बड़ा ही विचित्र माहौल है हमारे देश का। और इसे महाविचित्र बनाने में सबसे बड़ा सहायक है हमारा मीडिया। बीती रात महाराष्ट्र में एक रेल की बोगी में आग लग गई 9 लोगों की दर्दनाक मौत हो गई लेकिन खबरों में सबसे बड़ी खबर के नाम पर एक टुच्ची सी खबर थी। और वो थी कौशांबी में आम आदमी पार्टी के दफ्तर पर चंद लोगों द्वारा की गई तोड़फोड़। अरे तोड़फोड़ मारपीट क्या इतनी बड़ी खबरें हैं कि दिनभर और कुछ बचा ही नहीं दिखाने को। रेल में आग लगी मरने वाले मर गए। सरकार ने शोक जता दिया। जमुआवजा ऐलान कर दिया गया। जांच का आश्वासन दे दिया गया। ट्रेन अपने गंतव्य को चली गई। इतनी सर्दी में जहां जलाने से आग जलती नहीं हैं वहां एक ट्रेन में आग लग जाती है और रेल प्रशासन के कान में जूं तक नहीं रेंगती, ऊपर से खबरों में गार्ड की पीठ थपथपाई जाती है कि गार्ड ने मुस्तैदी दिखाई और डिब्बों को तत्काल अगल कर दिया जिससे और डिब्बों में आग नहीं लग पाई। क्या मजाक है, गार्ड को शबासी देना ठीक है लेकिन जनाब ये भी तो बता दीजिए की गार्ड की और ड्यूटी क्या है। क्या रेल प्रशासन ये बता सकता है की ट्रेन की उस बोगी में या किसी भी बोगी में आग जैसी घटना पर काबू पाने के लिए अग्निशमन मौजूद थे ? और उस वक्त उस डिब्बे का या अगल- बगल की बोगी के अटेंडेंट कहां थे ? आरपीएफ के जवान कहां थे ?  ये सारे सवाल क्या मीडिया को नहीं उठाने चाहिए ? जब कभी किसी ट्रेन में कोई हादसा होता है तो सूचना के तौर पर या फिर उस हादसे में अपनों को गवां चुके लोगों को बिलखता देखकर न्यूज चैनल सैड प्रोग्राम बनाकर टीआरपी बटोरना तो बखूबी जानते हैं। लेकिन उन समस्याओं पर कभी कोई प्रोग्राम नही करते जो ऐसे हादसों को जन्म देते हैं। कुछ चुनिंदा ट्रेनों को अगर छोड़कर बात करें तो किसी भी ट्रेन में दरवाजों के पास बिजली के तारों का ऐसा मकड़जाल होता है की जरा सी गलती से जान चली जाए। ज्यादातर स्लीपर क्लास में शायद ही कभी बाथरूम की सफाई होती हो। और हां आजकल तो एक नया सिस्टम आ गया है ईको टॉयलेट उसका हाल बयां करना भी मुश्किल है। जनरल बोगियों में आज भी लकड़ी के पटरों की सीटें हैं जिसमें से ज्यादातर में पटरे ही नदारद हैं। एमएसटी पर सफर करने वाले हजारों लोग जब एक साथ ट्रेन में चड़ते हैं तो जिसकी सीट होती है उसे बैठने का मौका मिल जाए वो भी बड़ी बात है। कई बार तो मारपीट की नौबत तक आ जाती है। लेकिन कभी कोई भी चैनल या अखबार जनता के लिए इस तरह की खबरों को तवज्जो नहीं देता। लेकिन अगर कहीं किसी नेता या नेतागिरी की खबर होती है तो सारा मीडिया जी जान लगा कर पिल जाते हैं। सही है लगे रहो... जनता को झेलने की आदत सी पड़ चुकी है अब तो ये सब कुछ जीवन का हिस्से के जैसा लगने लगा है।  

दीपक यादव        

शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

वाह पीएम साहब...



वाह पीएम साहब...

क्या विडम्बना है हमारे देश की। हमारे देश के पीएम की नाक के नीचे जब लगातार घोटाले हो रहे थे तब पीएम साहब कहते थे मेरी खामोशी अच्छी है। और अब जब सत्ता का पतन उनको साफ नजर आ रहा है तो प्रेस कान्फ्रेंस कर रहे हैं। सैकड़ों पत्रकारों के बीच ये कान्फ्रेंस गोलमोल जवाबों और दूसरों पर छींटाकसी में तब्दील होती साफ दिख रही है। एक और रोचक बात तो ये है कि हमारे कुछ पत्रकारों में अभी हिंदी के प्रति सम्मान बाकी है इसी लिए वो हिंदी में प्रश्न पूछ रहे हैं। लेकिन मनमोहन जी इस पर भी नही समझ रहे कि उनको सुनने वाली 80 प्रतिशत जनता हिंदी भाषी है। अब वो हिंदी बोल नहीं पाते या बोलना नहीं चाहते ये तो उनकी मंशा है और वो ही जाने। किसी हद तक सही भी है हिंदी में बातें कुछ ज्यादा ही प्रत्यक्ष हो जाती हैं। लोगों का अंग्रेजी में सॉरी कहना तो आम बात है लेकिन जब किसी को हिंदी में बाबा माफ करो कह दिया जाय तो वो खुद को भिखारी समझ कर बुरा मान जाता हैं। खैर अपनी अपनी समझ है। एक कहावत है डूबते को तिनके का सहारा लेकिन आजकल की कहावत बदल चुकी है डूबते ने साथी को डुबाया। कांग्रेस खुद तो डूब ही रही है और जाने किस किस को डूबाएगी ये तो लोकसभा के मैदान पर दिख जाएगा। फिलहाल देश इस वक्त नमों नमों जप रहा है शायद 2014 में ये मंत्र कुछ कमाल कर जाए। अच्छा ही है बदलाव होना चाहिए दस साल से कांग्रेस का दाल- चावल खाकर देश का मन उब चुका है। दिल्ली में केजरीवाल सबसे बड़ा उदाहरण है अब जनता को काम चाहिए बहुत हुए वादे। अब गरीब के घर खाना खाने की नही उसके घर खाना पहुंचाने की बारी है। ये अंग्रेजी वाली प्रेस काफ्रेंस ज्यादा दिन तक नहीं चलेगी काम करो, कार्यवाई करो नही तो हुक्का पानी बंद होने की नौबत आ जाएगी। जय हिंद जय भारत

दीपक यादव     

ये हैं Md. गुलज़ार खान...

बीते दिन गुरुग्राम में गुरु द्रोणाचार्य मेट्रो स्टेशन पर उतरकर अपने मित्र Abhishek Tripathi की प्रतीक्षा कर रहा था.. एक निश्चिंत और भोली मुस...