बंद दरवाजा खुला दिमाग
कभी-कभी आपके साथ कुछ ऐसा हो जाता है जो आपको मूर्ख शिरोमणी साबित करने के लिए काफी होता है। ये अपने आप नहीं होता आप खुद ऐसी महान मूर्खता का सृजन कर डालते हैं। कल यानि 24/05/2016 को ऐसा ही एक वाकया मेरे साथ हुआ। सुबह देर से सोकर उठा था। करीब 9:30 बज गए थे। उठते ही सुबह का सबसे जरूरी काम निपटाया, मुंह पर पानी की छींटे मार कर नाश्ते के इंतजाम में लग गया। तकरीबन दस बजे होंगे। रोजाना की तरह कचरे वाले ने दरवाजे पर दस्तक दी। अमूमन मैं रात को ही सारा कचरा सोसायटी में रखे कूड़ेदान में डाल देता हूं ताकि सुबह कचरे के दर्शन न हों। पिछली रात कचरा फेंकना भूल गया था। सो दस्तक पर विशेष ध्यान दिया और किचन का सारा कचरा समेट घर से बाहर निकला। दरवाजे से कोई तीन कदम पर एक बड़ा कूड़ेदान रखा था। यूं तो कचरा अगर दरवाजे पर भी रख दें तो कचरे वाला स्वयं उठा ले जाता है, लेकिन रखे कूड़ेदान को देखकर लगा उसी में डाल देता हूं। डिब्बे में कूड़ा डालना मेरी लिए आफत बन गया। दरवाजे से कूड़ेदान तक तीन कदमों का सफर मेरे लिए अंग्रेजी वाला सफर बन गया। मेरे बाहर निकले ही हवा का एक झोंका दरवाजे पर पड़ा और दरवाजा बंद। बंद मतलब बिल्कुल बंद। क्योंकि मेरे अलावा घर में कोई नहीं था और दरवाजे में एक तरफा स्प्रिंग लॉक लगा था, जो या तो अंदर से खुलता है या फिर चाबी से। अब अंदर कोई था नहीं और रही चाबी की बात तो वो भी कलमुई अंदर ही दरवाजे के हैंडल में लटक कर खनखना रही थी।
जैसा की मैने पहले बताया कि कुछ देर पहले ही मैं सोकर उठा था। अब सोकर उठने पर इंसान की हालत कैसी होती है, ये आप बेहतर समझ सकते हैं। कुछ शरीफ लोग तो कपड़े पहन कर सोते हैं और हम सिर्फ एक अदद जांघिया यानि कच्छा पहने थे जिसे कुछ पढ़ा लिखा वर्ग आजकल बॉक्सर भी कहता है। अब मेरी जो हालत थी वाकई दयनीय सी थी। उघारे बदन, पैरों में चप्पल नहीं, बिखरे बाल, मैली आंखें, हफ्तेभर से शेव नहीं की थी सो अलग। पर्स, मोबाइल सब घर के अंदर कैद हो चुके थे। कुछ देर तक तो समझ ही नहीं आ रहा था कि वाकई ये अजब घटना घट चुकी है। कचरे वाले को ज्यादा वक्त नहीं लगा पूरा माजरा समझने में, कम्बखत मेरी बेबसी पर मुस्कुराते हुए निकल गया। खैर अब कुछ तो करना था। कहते हैं परेशानी में पड़ोसी काम आते हैं, लेकिन यहां मुंबई में पड़ोसी जैसा कुछ होता नहीं है। यहां लोग सालों तक ये नहीं जान पाते कि उनके पड़ोस में कौन रहता है। वो अलग बात है कि पड़ोसी कोई फिल्मस्टार हो। मैं खुद नहीं जानता था कि मेरे पड़ोस में कौन रहता है क्योंकि ज्यादातर वक्त घरों के दरवाजे बंद ही रहते हैं। अब मेरी हालत ऐसी थी कि किसी का दरवाजा खटखटाने में घबराहट हो रही थी, कहीं कोई महिला ने दरवाजा खोला तो क्या सोचेगी? खैर.. हिम्मत की और एक दरवाजे पर दस्तक दी, दरवाजा खुला, सामने एक साहब खड़े थे। कद में मुझसे कुछ 4 इंच ज्यादा थे। इकहरा बदन, खिचड़ी नुमा बाल, सफेद आधी बांह की पेट पर जेब वाली बनियान, मटमैले रंग का लोवर पहने, आंखों पर नजर का चश्मा ठीक करते हुए बोले.. "कहिए ?".. मैं बेवजह की मुस्कान देकर बोला.. "सर मैं फ्लैट नंबर 605 में रहता हूं मेरा दरवाजा लॉक हो गया है, (कच्छे को दिखाते हुए) इसके अलावा बाकि सब अंदर बंद है, अगर कोई शर्ट या टीशर्ट मिल जाती तो... दूसरी चाबी का इंतजाम कर लेता"
जोर से आती हंसी को उन भाई साहब ने होंठों की बाउंड्री पर रोका और मुस्कान में तब्दील किया और बोले.. "दो मिनट रुकिए" मैं दरवाजे पर किसी मंगते () की भांति इधर उधर निहारने लगा कि कहीं कोई देख तो नहीं रहा। कोई दो मिनट में ही मेरे सामने ग्रे रंग की एक पुरानी टीशर्ट लिए वो भाई साहब खड़े थे। बिना वक्त गंवाए टीशर्ट पहनी। जल्द वापस करने के वादे के साथ शुक्रिया अदा किया और दरवाजा खुलवाने की जुगाड़ में निकल पड़ा।
टीशर्ट का साइज मेरे शरीर के मुकाबले थोड़ा बड़ा था, शक्ल अभी भी वैसी ही थी और पैरों में चप्पल नहीं। खैर.. आधा किलोमीटर पर पाण्डेय जी का कार्यालय ओम प्रॉपर्टीज था। पाण्डेय जी के जरिए ही ये घर किराए पर मिला था। उम्मीद थी उनके पास एक जोड़ा चाबी होगी। ये सब सोचते हुए बढ़ा जा रहा था। बस राहत की बात यही थी कि अंजान शहर में कोई जानता नहीं था इसलिए लोगों की नजरें मुझ पर होती हुई निकल जा रही थीं।
कुछ दस मिनट बाद पाण्डेय जी की दुकान कम ऑफिस पहुंचा। दुकान पर पाण्डेय जी तो नहीं नजर आए लेकिन मकान की उम्मीद लिए ग्राहकों की एक टोली बैठी थी। मैने पाण्डेय जी के बारे में पूछा तो जवाब मिला, आ रहे हैं। करीब 10 मिनट इंतजार के बाद पाण्डेय जी आए। हाल खबर के बाद पांण्डेय जी दीवार पर टंगे चाभियों के जखीरे को खंगालने लगे, लेकिन मिला कुछ नहीं। मैने कहा "मकान मालिक को फोन करिए और पता करिए कि उनके पास है कि नहीं" मकान मालिक को फोन लगाया गया, जवाब राहत देने वाला था। चाबी तो थी लेकिन मकान मालिक साहब किसी काम से निकले हुए थे। बोले डेढ़ बजे तक आ सकेंगे। अभी वक्त हो रहा था साढ़े दस, यानि तीन घंटे इंतजार करना था। एक पंथ दो काज करते हुए पाण्डेय जी के विजिटिंग कार्ड पर मकान मालिक का नंबर लिखा और निक्कर की जेब में रखा। बिताने को तीन घंटा पाण्डेय जी की दुकान पर बिताए जा सकते थे लेकिन बार-बार ग्राहकों का आना, तो मुझे लगा कहीं और चलना ही ठीक होगा।
घर के पास ही मेन रोड से लगा हुआ एक पार्क है। पार्क की बाउंड्री और फुटपाथ इस कदर जुड़े हैं कि आराम से बैठा जा सकता है। चार सौ मीटर लंबी इस बाउंड्री पर थोड़ी-थोड़ी दूर तकरीबन हर किस्म का लोग बैठे थे। मैं भी साफ सुथरी जगह खोज कर बैठ गया। इधर उधर नजर दौड़ाई तो देखा बड़ा ही रोचक नजारा था। बड़े दरख्तों की छांव में लाइन से बाउंड्री पर बैठे सिर झुकाए लोग। कितने शरीफ लोग हैं ये। सब के सब लाइन से गर्दन झुकाए बैठे किसकी गुलामी कर रहे हैं? ये गुलाम थे एक नन्हीं सी चीज के जिसे आप मोबाइल के नाम से जानते हैं। सबके हाथ में कोई चैट कर रहा था, तो कोई गेम खेलने में मग्न था। कोई फोटो निहार रहा था। लेकिन सब के सब शांत सिर झुकाए अपने में मग्न थे। अगर मेरे घर की चाबी का मसला न होता तो शायद मैं भी इस भीड़ का हिस्सा होता। कभी दरख्तों को, आती- जाती गाड़ियों के मॉडल को, इंसानी मॉडल को देखते हुए करीब एक घंटे तक वहां बैठा रहा। राह चलते एक शख्स से वक्त पूछा, 12 बज चुके थे यानि अभी एक से डेढ़ घंटा और बिताना था अगर मकान मालिक सही समय पर आता है तो। पार्क की बाउंड्री से उठने के बाद करीब 400 मीटर तक धीरे-धीरे कदमों तक इधर-उधर टहलने लगा। धीरे चलना मेरी मजबूरी भी थी क्योंकि चप्पल थी नहीं और नंगे पैरों आवारागर्दी की आदत छूटे जमाना हो गया था। फलों की दुकान, कचरे की गाड़ी, कोचिंग जाती और मसखरी करती बच्चियां, फुटपाथ पर तीन बांस और एक दीवार के सहारे शेड में दोसे की दुकान, और दुकान में सफेद आटे को चमचे से दोसे में बदलता आदमी, कभी पेड़ों की डाल तो कभी खिड़कियों पर उड़ान भरते कौवे, मक्की के दानों को गुटर गुटर निगलते कबूतर, कबूतरों के इर्द गिर्द घूमता कुत्ते का छोटा बच्चा क्या कुछ नहीं था बस कभी इत्मिनान से नजर रुकी नहीं। हमेशा जल्दी में रहते थे लेकिन आज इंतजार था। इस उधेड़ बुन में हाथ निक्कर की जेब में गया तो हाथ में वही कार्ड था जिस पर मैं मकान मालिक का नंबर लिख कर लाया था। लेकिन फोन कहां से करता, अब पीसीओ भी तो रेगिस्तान में दरख्त की तरह हैं। सबके पास फोन जो हैं तो इनको पूछता भी कौन है। बड़ी मशक्कत के बाद एक मेडिकल कम जनरल स्टोर पर दो फोन रखे दिख गए। पूछा तो पीसीओ ही था। लेकिन फोन कैसे मिलाता पैसे तो थे नहीं। दुकानदार को अपनी दास्तां सुनाई, अगले एक घंटे में पैसे चुकाने के वादे पर फोन मिलाने की अनुमति मिल गई। मकान मालिक को फोन लगाया भाई साहब, रास्ते में थे यानि करीब आधा घंटा और लगना था, मैने वहीं रुकना बेहतर समझा एक फोन और जो करना था। दुकान के काउंटर पर रखे अखबार की इजाजत मांगी और दुकान के बगल में बने चबूतरे पर बैठ गया। अखबारों की सुर्खियों, नेताओं के बयानों, लूट, रेप, इकोनॉमी में गोता लगाते कब आधा घंटा निकल गया पता ही नहीं लगा। एक बार फिर फोन करने की गुजारिश की। मकान मालिक घर पहुंच चुके थे। अगले 10 मिनट में उन्होंने मेरी बिल्डिंग के गेट पर मिलने को कहा। दुकानदार को जल्द लौटने का वादा और धन्यवाद करते हुए अपनी बिल्डिंग की ओर बढ़ा। समय अनुसार मकान मालिक आ गए, दरवाजा खुला और हमने राहत की सांस ली। मकान मालिक चलते बने। हम भी फटाफट तैयार होकर दुकानदार के पैसे चुकाते हुए ऑफिस की ओर निकल पड़े।
3 टिप्पणियां:
Hahaha...
Bhai dukh hua... par maza aa gaya padh ke...
Kayi cheezo ko sochne par majboor kar diya... mil kar vistaar mein charcha hogi ispar...
Thanks Gagan
Nice narration....to isse kya seekh mili....
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