खुदकुशी से निकलेगा हल?
रोहित वेमुला ने तो खुदकुशी कर ली। अब ये कौन लोग हैं जो रोहित की मौत पर मातम
कर रहे हैं। या फिर ये कौन लोग हैं जिनकी वजह से रोहित ने आत्महत्या की। उस लड़के
पर जो ज्यादती कर रहे थे वे कौन लोग थे। क्या वो सभी पंडित, ठाकुर, लाला या सवर्ण
जाति के लोग थे। या फिर रोहित के मरने के बाद उसकी मौत का विलाप करने वाले सभी
अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, बंजारे, दलित या दबे कुचले लोग हैं। आखिर माजरा
क्या है। सच बात तो ये है कि हम जिस सामाजिक सोसायटी में रहते हैं वो किसी सर्कस
से कम नहीं है। जिस विश्वविद्यालय से रोहित PHD कर रहा था क्या वहां कोई अधिकारी दलित नहीं है। सभी सवर्ण
हैं। क्या उसकी मौत पर सरकारों का विरोध करने वाले सभी दलित हैं कोई अन्य जाति का
नहीं है। अगर रेकार्ड उठा कर देखा जाए तो हर नौकरी के विज्ञापन में भले ही जनरल कैटेगरी
के लिए पोस्ट न हो लेकिन दलितों के लिए जरूर होती है। रोहित मरने के बाद कई
शिक्षकों ने इस्तीफा दे दिया वो भी तब जब उसकी मौत पर अच्छा खासा ड्रामा हो गया।
ये इस्तीफे तब भी तो हो सकते थे जब उसे निलंबित किया गया था। और निलंबन सही था या
गलत इसकी पुष्टी कौन करेगा। अबतक आप सबको ये लेख थोड़ा गोलमोल इधर से उधर घूमता
फिरता दिख रहा होगा। लेकिन जो मैं कहना चाह रहा हूं उस पर गौर करने के लिए इन
बातों को समझना जरूरी है। रोहित के साथ जो भी हुआ वो एक घटना थी। ऐसी हजारों
घटनाएं रोजाना पूरे देश में घटती हैं। ऊपर की लाइनों में जो मैने कहा उसका सीधा
मतलब ये है कि उसकी मौत का कारण बने लोगों में सवर्ण, दलित, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई
सभी शामिल हैं। साथ ही उसकी मौत पर दुखी होने वालों में भी यही सब लोग शामिल हैं।
अच्छा और बुरा इंसान है, न कि उसका धर्म, जाति और बिरादरी। आज कल किसी भी घटना पर
वास्तविक चिंतन होने की बजाय उसे एक मौके के तौर पर देखा जाता है। ऐसी घटनाएं या
तो किसी का वोट बैंक बढ़ाती और घटाती हैं या फिर किसी की टीआरपी। हादसे शहर के
दौरों और चीखती बहसों में नमूना बन कर रह जाते हैं। जैसे ही सबका उल्लू सीधा हुआ
घटनाएं इतिहास के पन्नों में सिमट कर उदाहरणार्थ ही रह जाती हैं। अगर वाकई इस
परेशानी को खत्म करना है तो सबसे पहले जाति के बंधन से मुक्त होना पड़ेगा, जो कि
100 प्रतिशत कभी नहीं होगा। जो लोग ऐसी घटना के बाद बड़ी बड़ी बाते छौंकते नजर आते
हैं, कोई पूछे उनसे क्या वो कभी वास्तविक दलित के घर गए हैं। और जाने के बाद क्या
कभी उस घर का पानी भी पिया है। जवाब होगा नहीं। लेकिन वही दलित अगर किसी ऊंचे औहदे
पर हो तो उसकी आव भगत करने में किसी तरह की मुरव्वत नहीं की जाती। एक उदाहरण के
तौर पर जब यूपी में मायावती की सरकार थी तो ज्यादातर औहदों पर दलित ही थे। सरकारी
दफ्तरों में अपनी सवर्ण जाति का झंडा बुलंद करने लोगों को इन दलित अफसरों के आगे
पीछे घूमते साफ देखा जा सकता था। अब इसे क्या कहा जाय। मेरे अपने कई दोस्त दलित
हैं, जो कि पढ़े लिखे हैं, और ऐसी नौकरिया कर रहे हैं जो आम लोगों का सपना होती
हैं। आज तक कभी हम लोगों ने आपस में जाति की दीवार को महसूस नहीं किया। ये सिर्फ
सोच का फर्क है। अगर सोच और नियत सही रहेगी तो कभी कोई ‘दलित’ रोहित नहीं मरेगा। अगर मर भी
रहा होगा तो एक छात्र होगा जिसकी मौत के वाजिब कारण होंगे। मेरी नजर में रोहित ने जो किया वो एक कायराना हरकत थी। किसी
को दलित होने की वजह से परेशान किया जाय और वो खुदकुशी कर ले। मेरे लिए ये सिर्फ
एक मूर्खास्पद कदम है और कुछ भी नहीं। न तो उस लड़के को अपनी मां और परिवार से
प्यार था और ना हीं खुद के भविष्य के लिए उसकी कोई योजनाएं थीं। मैं ऐसे कई लोगों
को जानता हूं जिनके लिए महीने का खर्च उठाना किसी जंग से कम नहीं होता है। लेकिन
वे लड़ते हैं प्रयास करते हैं मरने का ख्याल भी दिल में नहीं लाते। क्योकि वो
जानते हैं वो अकेले नहीं मरेंगे उनके साथ कई मौते भी होंगी। रोहित की मौत महज एक
घटना है जिसे सियासी फायदों के लिए जाति वाद का रंग देना बेहद शर्मनाक है।

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