गुरुवार, 1 सितंबर 2016

महानगरों का दम घुट रहा है।

भारी बारिश से दिल्ली- NCR का चक्का जाम हो गया।

मुंबई में बारिश छोडो, रोजाना टाउन का ज्यादातर हिस्सा ट्राफिक से जद्दोजहद करता रहता है। कोलकाता और चेन्नई की बात मत करिए। क्योंकि इनमें किसी का इंट्रेस्ट ही कहां रहता है, बशर्ते दीदी और अम्मा से जुड़ी खबर न हो। अब सब पिल पड़ेंगे महानगरों के सीएम, सिस्टम और व्यवस्था पर। आरोप के फायर और जिम्मेदारियों की ढकेलन प्रक्रिया चलेगी, जब तक दिल्ली की सड़कों और इस मुद्दे का पानी ना निकल जाए। फिर बुधवार के फर्जी रिजल्ट को देखकर कहीं मूछें तरेरी जाएंगी और कहीँ डेस्क और फ्लोर गर्म किए जाएंगे।

अगली नजर होगी फलाने क्या चला रहा है। ढ़िमाके को कैसे टक्कर दी जाए, रिपोर्टर को दौड़ाओ, उस गेस्ट को सबसे पहले बुलाओ, और पुराने रवैये के साथ राम नाम सत्य... चलो भाई टिफिन उठाओ और हो गई शिफ्ट। लेकिन इस श्वान रेंगन में सब शामिल नहीं हैं। कुछ एक हैं जो सड़े पेड़ की जड़ खोदने पहुंच जाते हैं। लेकिन खुदाई से निकली मिट्टी सियासी सड़क और नंबर गेम गंदा करने लगती है। नतीजा, दीमक लगी जड़ उखाड़ने के बजाय बयानी पेस्टीसाइड का छिड़काव कर सड़क साफ कर ली जाती है। कोई इस बात पर गौर नहीं करता इसकी असल वजह क्या है।

अच्छा आप ही बताइये जब आप खाना खाते हैं तो कितना खाते हैं? आधा पेट, पेट भरने तक, गला भरने तक, मुंह से बहने तक या फिर पेट फटने तक। पूरी उम्मीद है आपका जवाब होगा, पेट भरने तक। लेकिन जब शहरों की बात आती है तो जवाब होता है 'पेट फटने' तक या इससे भी कहीं ज्यादा। सच बात तो ये है महानगरों का पेट फटने की कगार पर है। दिल्ली की सड़कें गाड़ियों से खचाखच हैं तो मेट्रो और बसों में दमघोंटू भीड़ है। मुंबई का हाल भी कहां किसी से छिपा है। जो रोज बोरीवली से टाउन या पवई से वर्सोवा कार से जाते हैं, वे कम से दो घंटे का मार्जिन रख कर चलते हैं एक ओर से। वहीं पीक आवर्स में लोकल ट्रेन में न चाहते हुए भी लोग एक दूसरे की पप्पियां ले रहे होते हैं वो भी पसीने और परफ्यूम की सम्मिलित खुशबुओं के साथ। रही बात हादसों की तो ये तो आम बात हैं, और इतनी आम की NBT ने 'कातिल लोकल' के नाम से मुख्य पेज पर एक छोटा कॉलम ही खोल रखा है। यहाँ रोजाना लोकल से मरने वालों की संख्या लिखी जाती है। मैने शायद ही कभी ये कॉलम खाली देखा हो। सड़क हादसों की तो बात ही क्या।

खैर.. मै लंबे वक्त से सोच रहा हूं आखिर हम लोग मुंबई, दिल्ली जैसे शहरों को या उनके सिस्टम को क्यों दोष दे रहे हैं। क्या वाकई इतना बुरा हाल है इन शहरों का या फिर इनके इंफ्रास्ट्रक्चर पर जरूरत से कहीं ज्यादा लोड है। दिल्ली मुंबई जैसे महानगरों में रोजाना मेरे जैसे हजारों लोग आते हैं लेकिन वापस जाने का आंकड़ा आने वालों से कहीं कम है। यानि दिन पर दिन इन शहरों का लोड बढ़ रहा है। जिधर देखो भीड़ ही भीड़। दिल्ली का न्यू अशोक नगर। दिल्ली का शायद ही कोई मीडियाकर्मी होगा जो इस जगह से परिचित न हो। सुबह के वक्त यहां से पिट्ठू बैग टांगे लोगों का हुजूम निकलता है तो लगता है जैसे कुंभ का मेला हो। कमोबेश यही हाल दूसरे महानगरों का होता है। लेकिन इसके बिल्कुल उलट यानि टियर टू शहरों में ड्यूटी के वक्त लोग एक दूसरे से हाय बाय करते हुए कब ऑफिस पहुंच जाते हैं पता ही नहीं चलता। गर्मी की दोपहर या सर्दी की रात तो इन शहरों में इतनी सूनसान होती है की लू की सांय- सांय और झिंगुरों का संगीत तक सुनाई देता है। बड़े पुण्य किए हों तो शायद कम टूटी सड़क और रात में लाइट भी मिल जाए। क्यों नहीं विकास हो पा रहा है इन शहरों का? उत्तर प्रदेश को ही ले लीजिए। देश का सबसे खास राज्य है, लेकिन हालात सबसे दुखद।

ताजा रिपोर्ट कहती है क्राइम के मामले में नंबर एक हो गया है। लेकिन विकास के नाम पर खाली पोंगापंती रही सालों से। बचपन में सुनते थे फलाने कमाने के लिए दिल्ली गए हैं बंबई गए हैं। खुद बड़े हो गए और कमाने के लिए इन्ही शहरों की ओर निकल लिए। क्योंकि अपने शहरों में ऐसी नौकरियां तक नहीं है कि घर रह कर काम कर सकें। आगे आसार भी नहीं दिख रहे कि छोटे शहर के लोग कभी अपने शहरों में रह कर नौकरियां कर सकें। इसके सबसे बड़े जिम्मेदार वे हरामखोर नेता हैं जो बदल-बदल कर सत्ता का सुख भोग रहे हैं। लेकिन जिनकी वजह से, वे बेचारे घर के लिए घर से दूर अज्ञातवास झेल रहे हैं।

गिनती के नेता, गिनती के शहर, गिनती के मुद्दे देश नहीं हैं। इसके अलावा बहुत कुछ है जिस पर ध्यान जाना बहुत जरूरी है। हमें तगड़े विजुअल, क्रिस्पी बाइट, बड़े गेस्ट, बुधवार की टीआरपी से आगे सोचना होगा। वरना वो दिन दूर नहीं है जब हम मानसिक मंदी के सबसे बड़े बाजार होंगे...

दीपक यादव

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

ये हैं Md. गुलज़ार खान...

बीते दिन गुरुग्राम में गुरु द्रोणाचार्य मेट्रो स्टेशन पर उतरकर अपने मित्र Abhishek Tripathi की प्रतीक्षा कर रहा था.. एक निश्चिंत और भोली मुस...